SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० । [ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व हुआ, बारह प्रकार के अनशन आदि तपों की करने वाला अनेक कर्मों की निर्जरा करता है । परमार्थ मे निर्जरा का प्रमुख हेतु ध्यान है । उस ध्यान का स्वरूप इसप्रकार है कि निज शुद्धात्मस्वरूप में अपनी चैतन्यपरणति को स्थिर करना वह यथार्थ ध्यान है । ऐसा ध्यान ही श्रेष्ठ पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय है। ऐसा ध्यान आज भी इस पंच मकाल में होता है । उसे ध्याकर आज भी त्रिरत्न से शुद्धजीवात्मध्यान करके इन्द्र तथा लौकान्तिक देवपना पाते हैं। वहाँ से चयकर मनुष्य होकर निर्वाण को पाते हैं । इस तरह निर्जरा पदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ।' अव बंध पदार्थ का निरूपण प्रारम्भ करते हार बंध का स्वरूप लिखते हैं। यदि प्रात्मा विकारी परिणाम करता है तथा उदयागत शुभाशुभ भाव करता है. तब वह ग्यात्मा उन भावों द्वारा विविध पुद्गलकर्मा से बद्ध होता है । बंध के कारण को बताते हा लिखा है कि योग के निमित्त से ग्रहण होता है । राहग की गई का जीवप्रदेशों से क्षेत्रावगाही होना । वहाँ योग को मन, वचन तथा काय इन तीन रूप कहा है । आगे यह भी कहा है कि बंध का निमित्त भाव है तथा भाव राग-द्वेषादि भूक्त परिणाम है। ____अंत में मिथ्यात्व. संयम, कपाय तथा योग इन चार प्रकार के द्रव्यहेतुओं को आठ प्रकार के ज्ञानाबरणादि कर्मों के बंध का बहिरंग कारण निरूपित किया है। यहाँ रागादि परिणाम का सद्भाव बंध का अंतरंग हेतू बताया है । इसप्रकार चंब पदार्थ का निरूपण भी समात हुप्रा ।। ___ अब मोक्षपदार्थ का व्याख्यान करते हुए भावमाक्ष का स्वरूप कथन किया । पात्रब का हेतु जीव का माह-रागादि भाव है। ज्ञानी को उसका अभाव है, अतः मानवभाव का भी प्रभाव है। मानव के अभाव होने से कर्म का अभाव है नथा कर्माभाव हान से सबंजता, सर्वदर्शिता, अव्याबाधइंद्रियातीत अनंत सुख होता है. यही जोवन्मुक्ति नामक भावमोक्ष है। यह भावमोक्ष द्रव्यकर्ममाक्ष का शेतुभूत परमसंबर का प्रकार है। ग्रागे द्रव्यकर्ममोक्ष की हेतुभूत परमनिर्जरा का कारणरूप ध्यान कहते हैं। स्वभाव साहितसाधू को दर्शन-ज्ञान से सम्पूर्ण और अन्यद्रव्य समसंयुक्त ध्यान निर्जरा का हेतु है । अंत में द्रव्यमान का स्वप कथनकार प्रकरण को समाप्त किया १. २. ३. रामयज्यास्या, गा. १४४ से १४६ तक । वही, गा. १७७ स १४८ नक । वहीं, गा. १४६ ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy