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कृतियां ।
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अब उक्त विभाग का तृतीय प्रकरण शुभागयोग प्रज्ञायन अधिकार प्रारंभ होता है। यहां प्रथम ही शुभोपयोगी मुनियों को अप्रधान -- गौण सिद्ध किया है। कारण कि गुभोपयोगी प्रावधान है तथा शुद्धोपयोगी निरास्त्रव है। भोपयोगी श्रमणों की प्रगृति, पोपदेश, शिष्यग्रहण तथा उनके पोषण रूप और जिनेन्द्रपूजा की उपदेशक होती है । यद्यपि गुभोपयोगी की प्रवृति नेप ( कर्मबन्ध । का कारण होती है. तथापि अनेकांत से पवित्र हृदय वाले शुद्ध जैनों के प्रति तथा शुद्धात्मा के ज्ञानदर्शन में प्रवर्तमान प्रात्माओं के प्रति शुखात्मा के सिवा अन्य समस्त बातों की अपेक्षा किये बिना अनुकम्पा आदि शुभप्रवृत्ति करने का निषेध नहीं है 1 उक्त भूमिका में तथोक्त प्रवृत्ति बिना स्त्र-पर की शुद्धात्म परणति की रक्षा संभव नहीं है | शुभोपयोग गरूप प्रवृत्ति के लिए काल का नियम भी दिखाया गया है । शूभोपयोग यूक्त लौकिक जनों से बातचीत कब करना चाहिए, कब नहीं : इसका भी नियम दर्शाया है।' शुभोपयोग के कारणविपरीतता होने से फलविपरीतता भी सिद्ध की गई है । शुभोपयोग शुभबंध का कारण से मोक्ष का कारण नहीं है । शूभोपयोग धूक्त विषयकषायासक्त जनों की सेवा, उपकार या दान करने वाले जीवों को जो पुण्य की प्राप्ति होती है, उसका फल कुदेव तथा कुमानुष होला है।' कारण की विपरीतता से फल की अविपरीतता सिद्ध नहीं होती । प्रविपरीत फल का कारण अविपरीत कारणपना है । अतः ऐसे अविपरीत कारणों में ही प्रवृति बारना चाहिए। श्रमणों को अपनी अधिक गुणी श्रमणों के प्रति प्रत्युत्थान, ग्रहण, उपामन, पोषण, सत्कार, अंजलीकरण तथा प्रणामादि का निपंच नहीं है। प्राग श्रमणाभास का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है कि भागमज्ञानी, संयमी, तपस्वी होने पर भी जिनोक्त विश्व के तत्त्वों का जो ज्ञाता नहीं होता तथा प्रात्मप्रधान पदार्थश्रद्धान नहीं करता, वह मुनि श्रमणाभास है। यहां यह भी कहा है कि जो जिनोक्त शासन में लीन यथार्थ श्रमण को देखकर इष करना है वह चारित्र को नष्ट करता है। जो श्रमण हीन चूण वाला होकर भी "मैं श्रमण हूँ' से अभिमानश अधिक गुणी बमण से अपनी विनय कराना चाहता है, दोनों प्रकार न अमण विनाश को प्राप्त होते हैं, वे
१. प्रवचनखार तानीपिकालि गाना - में ५४ तक । . I, गा। २४५ २१७ ... |