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________________ २६६ } | आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व मुनियों के समस्त प्रकार के लोकव्यवहार नहीं होते । अन्त में युक्ताहारविहार का सविस्तार निरूपण किया है। उत्सर्ग तथा अपवाद मार्ग को मैत्री संस्थापित करके आचरण को सुस्थित बनाना चाहिए। उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद मार्ग होता है । उपसंहार करते हुए टीकाकार ने सर्वप्रकार से निजद्रव्य में ही विपनि करने की प्रेरणा की है। अंतिम विभाग का द्वितीय अधिकार मोक्षप्रज्ञापन हैं, उसका प्रतिपाद्य इस प्रकार है। श्रमण का प्रमुख कार्य प्रागमाभ्यास-आगमज्ञान है । आगमज्ञान बिना श्रमण मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता । मोक्षमार्ग में चलने वाले के लिए आगम ही एकमात्र चक्षु है । मुनि को आगम चक्षु (आगम की आज्ञा का ज्ञाता) होना चाहिए। समस्त जगत के प्राणी इन्द्रिय चक्षु वाले होते हैं । देव अवधिचक्ष वाले तथा अर्हत-सिड सर्वतः चक्ष वाले होते हैं। प्रागम चक्षत्रों का ऐसा माहात्म्य है कि उनसे सब कुछ दिखाई देता है । आगम पक्षों को कुछ भी अज्ञात नहीं रहता । आगे कहा है कि प्रागमज्ञान, लत्पूर्वक तत्त्वार्थ श्रद्धान तथा उन दोनों पूर्वक संयम इन तीनों का युगपत् होना ही मोक्षमार्ग है। आगमज्ञान विना तत्व-श्रद्धान तथा श्रद्धान बिना संयम मोक्षमार्ग का विधायक नहीं होना। अज्ञानी लाखों करोड़ों भवों तक जो कर्म खपाता है, वह कर्म ज्ञानी त्रिमुप्ति द्वार। उच्छवासमात्र में खपा देता है। यहां आत्मज्ञान की सर्वश्रष्ठता सिद्ध करते हुए टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि आत्मज्ञान शन्यसाधक के सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा संयम की युगमतता भी अकिंचित्कर है । वे कुछ भी नहीं, कर सकते । अतः उक्त तोनों के साथ प्रात्मज्ञान का समवेतपना आवश्यक है। उपरोक्त आत्ममान सहित आगमज्ञान, तस्वश्रद्धान व संयम धारी की प्रवृत्ति शत्रु-मित्र, सुख-दुख, प्रशंसा-निंदा,सोना-मिट्टी तथा जीवन-मरण में समभावरूप होती है। ऐसा श्रमणाना ही मोक्ष का मार्ग है। जो मुनि एकमात्र आत्मा को प्रमुख करके एकाग्र नहीं होता तथा अन्य दव्यों का प्राश्रय करके अनेकान होता है, वह आत्मज्ञान भ्रष्ट होने से मुक्ति को नहीं पाता। इसलिए प्रात्मा की एकाग्रता हो मोक्षमार्ग है ।। १. प्रवचनगार. सवदीपिकाव नि, गाथा २१० से २२६ तक । २. वही, माथा २२७ से २३५ तक । ३. वहीं, गाथा २३६ से २४० तक। ४. वहीं, गाथा २४२ से २४४ तक ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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