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कृतियाँ ]
करता है।' शुद्धात्मा की उपलब्धि स्वरूप हो मोक्षमार्ग है. उसका स्वरूप दिखाया है। अंत में उपसंहार करते हुए आचार्य स्वयं साम्य नामक परमश्रमणता को प्राप्त करते हैं। टीकाकार ने यह सुचना भी दी है कि चरण (चारित्र) द्रव्यानुसार होता है तथा द्रव्य चरणानुसार होता है। दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। इसलिए किसी का भी आश्रय लेकर मुमुक्षुओं को मोक्षमार्ग में प्रारोहण करना चाहिए। इस प्रकार ज्ञानजयविभाग अधिकार तथा द्वितीय श्रुतस्कंध रूप द्वितीय विभाग भी समाप्त होता है। ३. चरणानुयोग चूलिका -
अब अन्तिम विभाग प्रारंभ होता है जिसका नाम चरणानयोग सूचक चुलि का है। इसमें प्रथम पाचरण अधिकार पर प्रकाश डाला गया है। टीकाकार प्रारम्भ में लिखते हैं कि द्रव्य की सिद्धि में चरण की सिद्धि है और चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है। अतः ऐसा जानकर कर्मों से विरत दूसरों को भी द्रव्य के अनुकुल चारित्र धारण करना चाहिए । प्रथम जिनवरवृषमों ( अहतों) को नमस्कार तथा श्रमणों को प्रणाम करके श्रमण होने के लिए विधान निरूपित किया है । श्रमण बनने का इच्छक पहले बंधूवर्ग, माता-पिता, स्त्री, पुत्रादि से अपने को छड़ाता है। सभी की सम्मति लेने का अर्थ यह है कि यदि अन्य भव्य जीव अल्पसंसारी हो तो वह भी वैराग्य को प्राप्त करें। पश्चात् ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और बर्याचार इन पांचों को अंगीकार करके दीक्षागुरु के समक्ष प्रणत तथा अनुगृहीत होता है । फिर वह यथाजातरूप धारी - नग्नावस्था को प्राप्त होता है। २८ मूलगुणों का धारी होता है। इसे प्रमत्त दशा वाला श्रमण कहते हैं । वह छेदोपस्थापक भी कहलाता है । आगे प्रवज्यादायक गुरु वनिर्यापक गह आदि का लक्षण समझाया है । आगे संयमछेद के आयतनों का परिहार करने का उपदेश दिया है। छेद का स्वरूप स्रष्ट किया है । छेद के विभिन्न प्रकार भी दर्शाये हैं। प्रागे उत्सर्ग को ही वस्तूधर्म बताया है, अपवाद को नहीं । अपवाद के भेदों को समझाते हुए यह भी लिखा है कि
१. प्रवचन पार, तत्वप्रदीपि पति. गाथा १८६ से १६८ तक। ३. वही, गाथा १६६ से २०० तक । २. बही, गाथा २०१ से २०६ नाना ।