SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ । । आचार्य अमतचना : न्यनिन्द्र एवं कतुंग्य का स्वरूप तथा उसके निमित्त हेतुरूप द्रव्यवंध को भी समझाया है। उनमें परस्पर निमित्त नमितिका भाव दर्शाया है। यह भी कहा है कि रागी ही कर्मबंध करता है, रागरहित प्रात्मा कमों से मुक्त होता है । परिणामों के दो प्रकार हैं; परद्रव्य के प्रति प्रवर्तमान परिणाम तथा स्वदन्य में प्रवर्तमान परिणाम। प्रथम दुख के कारण है, दूसरे दुःख क्षय (मुख) के कारण है । अतः स्व में प्रवृत्ति तथा पर से निवृत्त के लिए स्व पर का भेद समझाया है । स्व-पर का भेदज्ञान ही स्व-प्रवृत्ति का निमत्ति है तथा उसका अज्ञान ही पर-प्रवृत्ति का कारण है।' आग आत्मा को अपने स्वभाव भावों का कर्ता तथा पुद्गल द्रव्यमय सर्व परभावों का अकर्ता लिखा है। परभाबों का कर्ता प्रात्मा इसलिए नहीं है क्योंकि उसके परद्रव्य का ग्रहणत्याग नहीं होता । संसारावस्था में पुद्गल परिणामों को निमित्तमात्र करके आत्मा को अशुद्ध परिणाम का कर्ता कहा । कर्मों में ज्ञानावरणादि रूम विचित्र परिणम न स्वयमेव अपनी अपनी योग्यता से होता है, जिस प्रकार नवीन मेघजल का भूमि से संयोग होने पर हरियाली, कुकरमुत्ता (छत्ता) और इन्द्रगोप (लाल कीड़े) स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं, उनका कोई कर्ता नहीं है। अकेला प्रात्मा ही रागदि मुक्त होकर कर्मरज से सम्बद्ध होता हुआ बंध कहलाता हैं । आगे निश्चय-व्यवहार में अविरोध दर्शाते हुए। शुद्धद्रव्य निरूपक निश्चयनय साधकतम होने से ग्राह्य या उपादेय बताया है तथा व्यवहारनय हेव बताया है। अशढनय से अशद्धात्मा तथा शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। ध्र व होने के कारण शुद्धात्मा ही प्राप्त करने योग्य है । अन व होने से आत्मा के सिवा अन्य समस्त पर पदार्थ प्राप्त करने योग्य नहीं है। सुद्धात्मा की प्राप्ति से मोहनन्धि का नाश होता है। मोहग्रन्थि के नाश होने से रागद्वेष का क्षय, श्रमणता की प्राप्ति तथा अनंत-अक्षय सुम्न की प्राप्ति होती है। मोह के नाश से, सहजचैतन्य स्वभाव का ध्यान होता है जो आत्मा में प्रशद्धता को आने से रोकता है । मोक्षय हो जाने के कारण केवलज्ञानी आत्मा समस्तज्ञ यों का ज्ञायक होता है, परन्तु उन तो किसी प्रकार की अभिलाषा-जिज्ञासा नहीं होती। वह केवलज्ञानी आत्मा निरंतर परमसुख का हो ध्यान १. प्रपननसार, नत्वप्रदपिका वति, पाथा १३३ रो १-२ नमः । २. वहीं, गाथा १४ से १८८ नाक ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy