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कृतियो ।
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उक्त विभाग का ततीय अधिकार ज्ञान-ज्ञयविभाग अधिकार है। इसमें ज्ञान तथा ज्ञवमेंस बतातर -TE: निमम राम: तथा व्यवहार जीवत्व के हेतु का भी विचार किया है। जीव के इन्द्रिय, बल, आय तथा शसोच्छवास ये प्राण है। ये प्राण पूदगलमय हैं। पौदगलिक कर्मफलों को जीव प्राणों से ही भोगता हैं। प्राण पूदगलमय पुद्गल कर्मी के कारण भी है | पुद्गलप्राणों की प्रवाहपरंपरा का हेतु शारीरिक विषयों में ममत्व होता है । इस प्रवाहपरंपरा से निवृत्ति का का कारण उपयोगमयी आत्मा का ध्यान करना है। यहीं पर्यायों के भेद को स्पष्ट किया है। आत्मा को अत्यंत विभक्त करने के लिए परद्रव्य के संयोग का कारण शुभ-अशुभ रूप अशुद्धोपयोग बनाया है, शुभ तथा अशुभोपयोग का स्वरूप भी लिखा है । उभयप्रकार के अशद्धोपयोग को नाश करने हेतु अन्य द्रव्यों में मध्यस्थ होने का अभ्यास करना चाहिये । शरीर, मन तथा वाणी, रूप में नहीं है,उनका कारण, कता या कारयिता भी नहीं है अत: उनके प्रति भी मध्यस्थ होने का अभ्यास करना चाहिए। शरीर, मन तथा वाणी ये परद्रव्य हो हैं तथा प्रात्मा में परद्रव्या का प्रभाब होने से आत्मा के परद्रव्य का बर्तापना भी नहीं होता।' प्रागे परमाणु रूप परिणति कैसे होती है ? इसका स्पष्टोकसण करते हुए स्निग्धत्व तथा रुक्षत्व को उसका कारण बतलाया। साथ ही यह भी नियम बताया कि समान से दो अंश अधिक वाले परमाणों में ही बंध होना है। जघन्य (एक) अंश में बंध नहीं होता। स्निग्ध अथवा रूक्ष परमाणओं में दो और चार तीन और पांच अंशवाले परमाण ही बंधन को प्राप्त होते हैं । आत्मा के पुद्गल पिण्डों का कर्तायना नहीं है। वह पुद्गल पिण्डों को लाने वाला भी नहीं है। वह उन्हें कर्मरूप भी नहीं करता । अात्मा शरीर की क्रियानों का भी कर्ता नहीं है। आत्मा के शरीरत्व का अभाव ही है । पांचों प्रकार के शरीर पुदगलमय ही हैं। आगे जीव का असाधारण लक्षण चेतनागुण बताते हुए उसे रस, प, गंघ, व्यक्ति, शब्द तथा लिंगग्राह्यता आदि से रहित ही बताया है। आत्मा के स्निग्ध मक्षपने के अभाव में उसका बंध किस प्रकार संभव है ? इस कठिन बान को दृष्टांत द्वारा इतना मुगम बनाकर समझाया गया हैं कि आबालगोपाल भी उसे समझ सकता है। यहां भाव बंध १. प्रवचनसार, गत्त्वप्रदीपिका इति, गाथा १४५ ग १६४ नफ . २. वही, गाथा १६५ मे १७२ तक ।