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________________ ४५२ } [ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व अतः जो जीव निश्चय व्यवहार नय को वस्तुस्वरूप से यथार्थ जानकर उनमें मध्यस्थ होता है, वहीं शिष्य जिनदेशना के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता हैं । " १ पक्षपात का भी त्याग जरूरी है : ऊपर प्राचार्य ने नयों के स्वरूप को जानकर मध्यस्थ होने की बात कही है । मध्यस्थ होना या नयों के पक्ष का विकल्प त्याग करना एक बात है । यथार्थ में तत्त्वनिर्णय रूप सविकल्प अवस्था में व्यवहार का विकककर छुड़ाया है। तथा निश्चय के आलम्बन का विकल्प कराया है, परन्तु यात्मानुभूति के लिए तयपक्ष रूप विकास बाधक ही है । जो विकल्प तत्वनिर्णय में साधक कहे गये हैं वे ही श्रव बाधक कहे गए हैं, क्योंकि अनुभूति की दशा में द्वौत नहीं होता. नय का विकल्प नहीं होता । इसलिए आचार्य अमृतचन्द्र शुद्धात्मानुभूति रूप प्रमृतपान करने के इच्छुक जनों को साक्षात आनंदामृत प्राप्त करने हेतु नय पक्षपात को त्यागने की प्रेरणा करते हैं । वे लिखते हैं कि जो आत्मा नयों के पक्षपात से मुक्त होकर अपने स्वरूप में लीन होते हैं, वे ही विकल्प रूप जाल से छूटकर शांत विचित्त होकर साक्षात् अमृत का पान करते हैं । 3 अस्तु | -M श्रनेकान्त स्याद्वाद अनेकांत जैनदर्शन तथा अध्यात्म की आधारशिला है तथा स्याद्वाद उस आधारशिला पर सुस्थित भव्य भवन है । वस्तु का स्वरूप अनेकातमयी है तथा उस अनेकांतस्वरूप वस्तु की शब्दात्मक अभिव्यक्ति स्याद्वादममी है । वस्तु का स्वरूप यनादि अनंत तथा खण्डित होता है यतः अनेकांतरूप आधारशिला भी प्रखण्डित है । वस्तु स्वरूप का यथार्थ कथन करने वाली वाणी भी अम्बलित ही होती है ग्रतः स्याद्वादरूप भव्य भवन १. २. M व्यवहारनिञ्चवः प्रयतवेन भवति सत्पथः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ पु. लि. द्य उनि नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं - "भूषयति भाति तमेव । - म. सा. क. २. एवमुक्ाक्षात स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् । विकल्पच्युत नान-विनास एवं साक्षादमृतं पिवन्ति ॥ - समयसार कन.६०.
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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