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दार्शनिक विचार ।
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भी अस्खलित एवं अनुल्लंघनीय है। प्राचार्य अमृतचन्द्र भी उक्त तथ्य की घोषणा करते हुए लिखते हैं कि इस प्रकार जो जिन दव का अनेकांतरूप अलंध्य शासन है, वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप की ध्यबस्थिति के द्वारा स्वयं को व्यवस्थापित करता हुआ व्यवस्थित है।' अनेकान्त और स्याद्वाद दोनों में घनिष्ट सम्बन्ध है। उनमें द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध है। अनेकांत स्वरूप वस्तु द्योत्य है तथा स्वाद्वादमयी वाणी या कथन शैली उसकी द्योतक हैं । अमृतचन्द्र ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए स्पष्ट लिखा है कि स्याद्वाद समस्त वस्तुत्रों के स्वरूप को सिद्ध करने वाला, प्रहन्तदेव सर्वज्ञ जिनेन्द्र का एक अस्खलित शासन है। वह स्याद्वाद “समस्त वस्तुएं अनेकान्तात्मक है" ऐसी उद्घोषणा या उपदेश करता है, क्योंकि सभी वस्तुओं का स्वभाव अनेकान्तमय है। जो अनेकांतमय वस्तुस्वरूप को अनेकांतसंगत दृष्टि से स्वयं ही अवलोकन करते हए, स्याद्वाद की शद्धि को अतिशयता से जानकार जिननीति (जिनेन्द्र के मार्ग का उल्लंघन नहीं करते हैं, वे सत्तुरुप ज्ञानम्वरूप होते हैं। इस प्रकार दोनों अनेकांत तथा स्याद्वाद की आवश्यकता तथा महिमा को देखते हुए ही आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी समग्र रचनाओं में अनेकांतस्वरूप का जिस पटुता एवं स्पष्टता के साथ विवेचन किया है तथा स्याद्वादमयी शैली में तस्वमीमांसा में जो कौशल प्रदर्शित किया है, वैसी पटुता, स्पष्टता तथा कुशलता अन्यत्र दुर्लभ है। यहां हम अमृतचन्द्र द्वारा प्रस्तुत अनेकान्त की प्रास्था, उसका महत्व, लक्षण, उदाहरण एवं अन्य बातों पर प्रकाश डालते हैं :अमृतचन्द्र को अनेकान्त विषयक प्रास्था :
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अनेकांत के सम्बन्ध में अपनी विशेष आस्था प्रगद की है। प्रत्येक ग्रंथ में चाहे वह टीकाकृति हो या मौलिक ग्रंथ, उन्होंने अनेकांत का स्मरण अवश्य किया है। प्रात्मख्याति टीका के प्रारम्भ में
१. एवं व्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम् ।
अलंध्यासनं जंगमनेकान्तो व्यवस्थितः । समयसार कलश, २६३. २. पंचा. गा. १४ की टीका ।
समपसार, आत्मख्याति, परिशिष्ट पृ. ५११. नैकालसंगतहशा स्त्रयमेववन्तु-तत्त्वध्यवस्थितिमिति प्रविलोकयन्तः । रसादाद दिम धिकाधिगम्य संतो, शानोभवन्ति जिननी निमलंधयन्तः ।
-समयसार.का. २६५.