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दार्शनिक विचार |
। '४५१ उपयुक्त व्यवहार रूप कर्मनय तथा निश्चय रूप ज्ञाननय के एकांत अवलम्बन का तथा दोनों के सम्यक् सुमेल का फल निरूपण करते हुए प्राचार्य अमृतचन्द्र ने एक स्थल पर लिखा है - कि कर्मनय के अवलम्बन में तत्पर पुरुष दूबे हुए हैं क्योंकि वे ज्ञानस्वभावी प्रात्मा को नहीं जानते । सायही तनम के इस जी हाए हैं क्योंकि स्वरूप प्राप्ति का पुरुषार्थ नहीं करते तथा प्रमादी होकर विषय कषाय में प्रवर्तते हैं, परन्तु जो निरन्तर ज्ञान रूप होते हए, कम नहीं करते तथा प्रमाद के वशीभत भी नहीं होते, वे जीत्र संसार समुद्र से कार तरले हैं। नय पद्धति - जैनी नीति के प्रयोग का उदाहरण :
प्राचार्य अमृतचन्द्र उक्त निश्चय-व्यवहार अथवा द्रव्याथिक पर्यायाथिक नयों को ग्वालिनी की मथानी की रस्सी के दो छोर की भांति निरूपित पारते हैं। जिस प्रकार ग्वालिनी मथानी की रस्सी के एक छोर को खीचती है तथा दूसरे को ढीला करती है, इस प्रकार मन्थन करके तत्वमक्खन को प्राप्त करती है उसी प्रकार Hिद्रदेव की स्यादवाद नीति है जो दध्यार्थिक नय से वस्तुस्वरूप को खींचती - प्रमुख भारती है तथा पर्यायाथिक नय शिथिल करती हैं, इस प्रकार प्रात्मानुभूति रुप तन्त्र को प्राप्त कराती है। उभयनयों के विरोध को स्यात् पद से मिटाया जाता है :--
व लिखते हैं कि दोनों नयों में यद्यपि विषय की अपेक्षा परस्पर विरोध है तथापि स्यात् पद के प्रयोग में यह विरोध मिट जाता है तथा स्यात् पद से चिह्नित जिनवाणी में जो पुरुष रमण करते हैं वे पुरुष स्वयं ही मोहकम का वमन करके शीघ्र ही अतिशयरूप से प्रकाशमान शुद्धात्मा को प्राप्त करते हैं, जो शुद्धात्मा नवीन पैदा नहीं हया। मध्यस्थ शिष्य हो देशना का फल पाता है :
वास्तव में नय तो वस्तुस्वरूप को जानने के लिए साधनमात्र हैं.
१ सहसा कलेश. १११. २. एकनावर्षन्ती इलथनी वस्तुतत्वमित ।
अन्तेग जाति जनी नीतिमन्यानने अमिय गापा । पृ.मि.२२५ वा पद्म । उभयनः विगेवयसिनी स्यास्पदा, जिनवचसि रमाले ये स्त्रयं गान्त मोहाः सपटि समयसारं ते परं ज्योतिश्च्च-नयनय पक्षरक्षा भीक्षन एव ।।
-रा. ना. क. ४.