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________________ ४५० ] | आचार्य श्रमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एक कव पाते इसलिए प्रमादरूपी मदिरा से मदमत्तवत् ग्राहसी चित वाले ब रहते हैं। चौथे वे मुछित व्यक्ति के समान गाव-निद्रा में सोये हुए के. समान बहुत घी शक्कर खाकर तृप्त हुए के समान, मोटे शरीर के कारण जड़ता पैदा हुए के समान, दारुण बुद्धि से मूढ़ता को प्राप्त होने वाले के समान, विशिष्ट चेतना मुदी हुई वनस्पति के समान, मुनीन्द्र पदोचित कर्मचेतना का पुज्यबंध के भय से अवलम्बन नही करते हैं। पांचवे, वे परम निष्कर्मावस्थारूप ज्ञानचेतना को प्राप्त नहीं करते तथा व्यक्तव्यक प्रमाद के ही प्राधीत वर्तते है । वे निकृष्ट कर्मफल की चेतना प्रमुख प्रवृत्ति वाली वनस्पति की भांति केवल पाप को ही बांधते हैं। कहा भी है निश्चय का श्रालम्बन लेने वाले परन्तु यथार्थ में निश्चय को न जानने वाले कुछ जीव बाह्याचरण में आलसी होते हुए आचरण तथा परिणाम को नाश करते हैं । ' - आभासरहित, उभयनयसुमेल सहित सम्यग्ज्ञानी साधक का स्वरूप :आचार्य ने व्यवहार तथा निश्चय दानों के एकान्त वलंबी अज्ञानो के दोषों का दर्शन कराकर आभास रहित, उभयनय का परस्पर सापेक्ष हि सुमेल दिखाकर सच्चे मोक्षमार्ग का उद्यात किया है। सम्यग्ज्ञानी साधक की प्रवृत्ति का निरूपण करते हुए वे लिखते हैं जो न मोक्ष) के लिए सतत प्रयत्नशील रहने वाले महान् भगवान् पुरुष हैं, ये प्रथम तो निश्चय व्यवहार में से किसी एक का ही आलम्बन पक्ष न लेने से अत्यंत मध्यस्थ रहते हैं । दूसरे वे शुद्धचैतन्य रूप श्रात्मतत्त्व में विश्रांति को बढ़ाते रहते हैं। तीसरे, वे प्रमाद के उदय से उत्पन्न वृत्ति को नाश करने वाली क्रियाकाण्ड रूप पति को अंतरंग में महत्व नहीं देते अपितु उदासीन वर्तते हैं। चौथे वे यथाशक्ति प्रात्मा को आत्मा में ग्रनुभव करते हुए अनुभव में ही लीन रहते हैं । ऐसे महान भाग्यशाली जीव स्वतत्व में विवाति के अनुसार क्रमशः कर्म का त्याग करते हैं तथा अत्यंत निष्प्रमाद निष्कम्पमृर्ति होकर यद्यपि वनस्पति की उपमा को धारण करते हैं और कर्मानुभूति के प्रति निरुत्सुक रहते हैं, केवल ज्ञानानुभूति से हो उत्पन्न तान्त्रिक ग्रानंद से अत्यंत भरपूर वर्तते हैं । इस प्रकार वे शीघ्र ही संसारसमुद्र को पार कर शब्द ब्रह्म के माश्वत फल निर्वाण सुख के भोक्ता होते हैं । " २. पंचास्तिकाय ग. १७२ की टीका । पंचारिया १७२ की टीका.
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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