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दार्शनिक विचार ]
। ४४६ अमृतचन्द्र लिखते हैं कि वे दर्शनाचार के लिए कभी अत्यंत शांत होते हैं, कभी संसार-शरीर तथा भोगों की अरुचिरूप संवेग भाव को धारण करते हैं, कभी षटकाय के जीवों की दया का पालन करते हैं, कभी ग्रास्तिक्य भाव को धारण करते हैं, शंका-कांक्षा-विचिकित्सा और मढष्टिता के उत्थान को रोकने के हेतु निता कटिबद्ध रहते उपबहाग कर बारसा और प्रभावना के कार्य में बारम्बार उत्साह को बढ़ाते हैं। वे ज्ञानाचार के लिए स्वाध्याय काल का ध्यान रखते हैं, बहुत प्रकार सेवि नय करते हैं. दुर्धर उपधान (नीरस आहार तप) करते हैं, भली-भांति बहुमान को प्रसारित करते हैं, निदव दोष को अत्यंत दूर करते हैं, अर्थ व्यंजन तथा तभय की शुद्धि में सावधान रहते हैं। वे चारित्राचार के लिए पंच महावतों में तल्लीन रहते हैं, योगनिरोध लक्षणयुक्त गुप्तियों में उद्योग रखते हैं, पांच सामतियों का पालन करते हैं। वे तपाचार के लिए यह अंतरंग एवं छह बहिरंग एंसे १२ प्रकार के लपों को सपते हुए अपने अंतकरण पर अंकुश रखते हैं तथा वीर्याचार के लिए कर्मकाण्ड में पूर्णशक्ति के साथ संलग्न होते हैं, इस प्रकार के आचरण से अशुन कर्मरूप प्रवृत्ति से निरन्तर दूर रहते हैं तथापि कर्मचेतना रूप शुभ कर्म प्रवृत्ति को बारम्बार ग्रहण करते हैं परन्तु वे समस्त क्रिया काण्ड से परे दर्शनज्ञानचारित्र को एकता रूप ज्ञानचेतना को जरा भी उत्पन्न नहीं करते हैं तथा बहुत पुण्य के भार मे मंदचित्त वृत्ति वाले होकर स्वर्गलोकादि के क्लेशों की परम्परा को पाते हैं और अत्यन्त दीर्घकाल तक संसार सागर में परिभ्रमण करते हैं। कहा भी है-जो चरण परिणाम प्रधान हैं और स्वसमयरूप परमार्थ में व्यापार रहित हैं, वे चरण परिणाम का सार जो निश्चय शुद्धात्मा है उसे नहीं जानते।' एकल निश्चयाभासी का स्वरूप :
प्राचार्य ने जहां एक ओर व्यवहार नयावलम्बी के दोषों का दिखाकर उसे परमार्थ पथ की ओर प्रसर किया, वहाँ दूसरी ओर एकांत निश्चय नयावलम्बी की भी भूलें दिखाकर उसे भी भवसागर में डूबने से सावधान किया। वे लिखते हैं कि जो केवल निश्चय नमावलम्बी हैं व प्रथम तो समस्त क्रियाकर्मकाण्ड के आडम्बर से विरक्त रहते हैं। दूसरे वे अपनी आंखों को अधमुदा रखकर वृाछ भी बुद्धि मे क पनाकर इच्छानुसार मुखी रहते हैं। तोगरे, बे भिन्न साध्यसाधनभाव का सर्वथा तिरस्कार करते हैं तथा अभिन्न साध्यसाधनभाव को भी उपलब्ध नहीं कर
१. पंचास्तिका गा १७२. टीका।