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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व परमार्थ से साध्य साधनपना कदापि घटित नहीं होता, कारण कि व्यवहार पराधित होने से बंधभाव है तथा हेय है. निश्चय स्वाश्रित होने से निजभाव - मोक्षभाव है तथा उपादेय है ।' फिर भी व्यवहार दृष्टि से ही कर्ताकर्म अथवा साध्य साधन भावों में भिन्नता कही जाती है। निश्चय दृष्टि से विचारने पर कर्ता-कर्म अथवा साध्य-साधन भाव तक ही द्रव्य में होते हैं, दो में नहीं । निषेधक-निषेध्य सम्बन्ध :
निश्चय, कर्मों से मुक्ति दिलाने में निमित्तभूत तथा भूतार्थ है इसलिए वह निषेधक है। व्यवहार-धर्म भोगों की प्राप्तिमें निमित्तभूत है तथा अभूतार्थ है इसलिए वह निध्य है। व्यवहार को निषेध्य बताकर
आचार्य समस्त ही पराश्रित, बंध-कारक व्यवहार सड़ाना चाहते है तथा निश्चय के द्वारा स्वाचित, मोर-माधकाट प्रगट कराला नाहते हैं।' एकांत व्यवहाराभासी का स्वरूप :--
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने निरपेक्षनय रूप व्यवहार तथा निश्चय के एकांत का अवलम्बन करने वाले जीवों की भूलों का स्पष्ट दिग्दर्शन कराकर उन्हें सम्यक अनेकान्त रवरूप दिखाकर परमार्थ मार्ग - मोक्षमार्ग में लगाने में कोई असर नहीं रखी है। व्यवहारनय के एकांतरूप से अवलम्बन करने की भूलों को दिखाते हुए वे लिखते हैं - जो केवल व्यवहारावलम्बी जीव हैं, वे प्रथम तो भिन्न साध्यसाधन भाव के अपनाने में निरन्तर लगे रहते हैं तथा व्यर्थ ही अत्यधिक खेदखिन्न होते रहते हैं। दूसरे, बार बार धर्मादि को श्रद्धान रूप अध्यबसान में उनका चित्त लगा रहता है, वे निरन्तर बहुत श्रुताभ्यास रूप संस्कारों से उठने वाली विचित्र विकल्पजाल. रूप वृत्ति से चैतन्यवृत्ति को कलुषित करते हैं । तीसरे, यतियों के प्राचार रूप समस्त प्रकार के सपों में प्रवर्तते हुए कर्मकाण्ड की धमाल में तल्लीन रहते हैं। ये कभी किसी विषय की रुचि करते हैं, कभी किसी विषय के विकल्प करते हैं और कभी कुछ प्राचरण करते हैं। इस तरह कर्म चेतना में हो संलान रहते हैं। वे दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप तथा वीर्याचार कप पंचाचारों के पालन हेतु किस प्रकार प्रवृत्ति करते हैं इसे स्पष्ट करते हुए ५. समसार कता - मन्ये यबहार एवं निलोऽयन्याययस्याजितः।" २. हो.कलश, २१०. "व्यावहारिकहरवलं, कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते ।।"
निश्चयेन यदि बस्तु चिन्यते. कत कर्म च सदै कमिप्यते ।।" ३. नमबहार, बंभाषिनार गा २७५-२७६ को टीका.
समयगार कलश, १७३.