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दार्शनिक विचार
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व्यवहार कथन द्वारा समझाया जाता है तथा व्यवहार कथन से दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि लक्षणमयी दिखाकर अभेद आत्मा का भी ग्रहण करना सम्भव होता है, जिस प्रकार म्लेच्छ भाषा में आर्यभाव को समझाया जाना शक्य है उसी प्रकार व्यवहारीजनों को व्यवहार भाषा में निश्चय का विषयभूतात्मा समझाया जाता है ।" अमृतचन्द्र ने स्पष्ट कहा है कि ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कहने वाला व्यवहार, परमार्थ मात्र का ही प्रतिपादक है अन्य कुछ का नहीं ।" यहां विशेष सावधानी इस बात की होना आवश्यक है कि प्रतिपाद्यप्रतिपादक को वाच्य वाचक सम्बन्ध नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि निश्चयनय द्वारा निरूपित वस्तु तथा निश्चय के वचनों में वाध्य वाचक संबंध बन जाता है परन्तु व्यवहार नथ के वचन वस्तु स्वरूप के प्रकाशक नहीं हैं. श्रपितु आरोपित, उपचरित, असत्यार्थ स्वरूप के प्रकाशक हैं अतः व्यवहारत के कथन के विपरी वस्तुस्वरूप होने से व्यवहार तथा निश्चय में वाचक - वाच्य सम्बन्ध नहीं बनता। इसी लिए व्यवहार नय को प्रतिपादक लिखकर भी अमृतचन्द्र ने उसे अनुसरण न करने योग्य लिखा है ।
साध्य-साधक सम्बन्ध :
निश्चय को साध्य तथा व्यवहार को साधक निरूपित करते हुए एक स्थल पर वे लिखते हैं कि निश्चय व्यवहार की अपेक्षा मोक्षमार्ग दो प्रकार का कहा गया है, उनमें प्रथम - निश्चय मोक्षमार्ग साध्यरूप तथा द्वितीय व्यवहार मोक्षमार्ग साधक रूप हैं ।" यहां यह ध्यान देने योग्य है कि ज्ञेयों को ज्ञान कहना जैसे घट ज्ञान, श्रद्धेय को दर्शन कहना जैसे देव गुरु-शास्त्र की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है तथा आचरण करने योग्य को चरित्र कहना जैसे हिंसादि का त्याग चारित्र है, यह सब व्यवहार रत्नत्रय विषयक कथन प्रसद्भूत व्यवहारनय का है ।" इसे परमार्थ नहीं जानना चाहिए ।
६. नमसार आत्मख्याति गा. ७ टीका तथा ८ की टीका |
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वहीं, गा. टीका ६-१०.
३.
समयसार गाडी तथा ११. इलि बननात् व्यवहारनको नानुसंय" तत्त्वार्थमार, उपसंहार पद्य - २. 'निश्चयव्यवहाराभ्या मोक्षमार्गे दिवा स्विनः तत्राद्यः सान्यरूपः स्याद्वितोयस्तस्य साधनम् ।।"
मयचक्र ३२० गा. "णेयं खु जत्था सद्धे व जत्य दसणं भरिब' । चरि चारित वच्य तं प्रसवभूव ॥"
खलु
५.