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________________ MAMIO हतियाँ । 1 ३७१ है । आत्मा-विश्व के एक अंश रूप से सत् है, वही विश्वरूप न होने से उस अपेक्षा से असत् है । ज्ञानघन आत्मा-विश्व के अनादिसिद्ध नानापने को नष्ट नहीं कर सकता। सबको जानकर भी चेतन तथा अचेतन के स्वरूप को नाश नहीं किया जा सकता । जैसे मुर्दे में अनेक संस्कार करने पर मो चेतनत्व की प्रतीक्षिाहीं होती। विध्य सारा निरूपण करने वाली स्यावाद रूप मुद्रा प्रत्यक्ष खड़ी प्रतीत होती है। प्रापक सिद्धान्तों तथा अन्यमतियों के सिद्धान्तों में बहुत बड़ा अन्तर है 1 गापने स्याहाद मुद्रा की रचना की है, जो बस्तु के तत्-प्रतत् स्वभाव । प्रकाशक है। आप स्व-पर के दुःख नाशक हैं। अन्य मतियों को खेदोतवाद तथा गुमुक्षयों के उपास्य हैं । आपका शासन जगत् के प्राणियों के दुःखों को दूर करने वाला है। समरसी महामुनियों को महादुःख भी सुख रूप लगते हैं। जैसे बिल्ली को गर्म दूध भी रुचिकर लगता है । आप सर्वज्ञता तथा निर्दोषता सहित श्रेष्ठ प्राप्त हैं । शब्द परमब्रह्म भी आप ही हैं । इस नरह उक्त अध्याय समाप्त होता है। नवम अध्याय में पुनः जिनेन्द्र निर्ग्रन्थ जिन) के गाव्यात्मिक चरित्र का वर्णन है । इसमें जिनेन्द्र की पूर्वसाधना का विवरण हे। पूर्व में वे अन्य मतियों द्वारा निन्दा किये जाने पर भी अपने स्वरूप साधना के मार्ग से विचलित नहीं हुए। आपनं एकाकी रहा तथा अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह त्यागने की प्रतिज्ञा की और पामर प्राणियों पर दया की । प्राप वरतुस्वरूप के विचार में निरत: छहकाय के जीवों की दया के पालक पक्षपात रहित होकर भी प्राणियों के हित के पक्षपाती थे । ग्रहागि सूर्यकिरण आपके शरीर को जलाती थी, अापका प्रात्मा तो अमृतकण की भांति ही था । पाप समता रस के भार से शिथिल हो रहे थे तथा योग धारणकर मृतकवत् निश्चेष्ट थे, उस समय शृगालों द्वारा प्रापका शरीर विदीर्ण दिया गया था । अापने अर्धं तथा पूर्ण मासोपवास करके मोहम्वर को नाश त्रिया था । बापने अन्य तथा पूर्णसंयम प्रगटने से आप सर्वज्ञ बने थे। उस समय आपः। मोक्षमार्ग का उपदेश दिया था । अापके समग्र उपदेश का नार यह है कि अन्तरंग की कषायों को क्षय करते हुए शक्ति अनुसार चारित्र सारण कर । ज्ञानप्रधानचारित्र की महत्ता दिखाते हुए लिखा है कि सभ्याज्ञान पूर्वक ही सम्यक्चारित्र होता है । साथ ही सम्यक्चारित्र रहित ज्ञान भी अहेतुबन होता है । आपने परम यथाख्यात चारित्र को पाकर कालाय तथा योग निरोध द्वारा, मनुष्य प्रायु के अंतिम क्षण को पूर्ण कर अग्नि की शिग्दा के समान उर्ध्वगति सिद्धावस्था को प्राप्त किया था। अाप अनन्त चतुराय युक्त है।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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