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________________ ३७२ । . आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व वीर्य-शक्ति दर्शन-शान की तीक्ष्णता को तथा दर्शन-शान की तीक्ष्णता निराकुलता को और निराकुलता सुख को पैदा करती है । हे जिनेन्द्र ! प्राप ऐसे निराकुल-सुख से तन्मय हए हैं। तृष्णा का अभाव, अखण्डित वीर्य, निधिज्ञान इत्यादि जो सुख के कारण हैं, वे आप में विद्यमान हैं। प्राप संसार नाम से थक, दिशा में स्थित तथा तीनों काल की पर्यायमाला सहिल प्रात्मतत्व को देखते व जानते हैं। आप समस्त विश्व के अविभागी प्रतिच्छेदों को भी जानते हैं। आप प्रमाता व प्रमेय रूप से तन्मयी हैं. तथापि एकत्व को प्राप्त नहीं होते । परद्रव्य के प्रदेशों मे द्रव्य प्रदेशवान नहीं होता अपितु स्वप्रदेशों से प्रदेशवान होता है। आपके अनन्तदर्शन व ज्ञान में लोकालोक झलकते हैं, यही उनके प्रति प्रापका उपकार है । आप दर्शनज्ञानमयी मूर्ति होकर भी नाना ज्ञेयों के अपेक्षा नानारूप भी हैं । आप सदा स्वभाव सीमा में भग्न रहते हैं । त्रिकालवर्ती अखिल-विश्व के ज्ञाता आपके ज्ञान में अनन्त विश्वों को जानने की सामर्थ्य है। आपकी सामर्थ्य अप्रतिहत है । मैं जगत् के परिभ्रमण से थक चुका है, अतः प्राणपण से आपकी शरण लेता हूँ। मुझे अन्ध विवादों से कोई प्रयोजन नहीं है। दशम अध्याय में शुद्धनय की दृष्टि से जिनेन्द्र का स्मरण किया है। शुद्धनय में समस्त नय गभित हैं । अनन्तचतुष्टययुक्त चैतन्य 'चमत्कार मात्र आपका म्प है। आपका चैतन्य रम प्रवाह किसी से रोका नहीं जा सकता। आका निर्मल तेज उत्तरोत्तर उछलता है । आपकी चेतन्य महिमा में समस्त विश्व डूबा सा लगता है । आपका स्वभाव रस, विभाव परणति से भिन्न है। उसमें विकल्प जाल नहीं है। आपकी दृष्टि स्वभाव से प्रतिबद्ध है। आप सिद्धालय पाने वाले हैं। आपका ज्ञान सर्वतः सुशोभित है । आपकी अनुभूति अखण्डित है । अनादि काल से उत्पाद-व्यय करते हुए भी आप आत्मतेज को नहीं छोड़ते। आपकी चतन्य-शक्ति के विकास से, . सुगंध फैल रही है । आप नमक की डली की भांति एक ज्ञायकस्वभाव तथा स्वानुभव से परिपूर्ण हैं। बर्फपिण्ड की तरह आत्मरस से परिपूर्ण हैं । आप अपार बांधामृत सागर होकर भी स्व के पारदशी हैं । आपके स्वानुभव में ज्ञान का सार समाया है । आपका स्वभाव अनुभवमय है । आप कारकमय होकर भी कारकों के चक्रों से पार हैं । आप काल से कलंकित नहीं होते। आप एक स्वभावी, ज्ञानमात्र हैं। पाप में मिश्रण भी नहीं तथा शून्यता भी नहीं है । पाप भावरूप तथा चैतन्य स्वरूप हैं। मैं भी चिद्भाव रुपता को धारण करता हूँ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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