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________________ कृतियाँ ] एकादश अध्याय में भी शुद्धनय की दृष्टि से कथन किया है । प्रारभ में लिखा है कि हे जिनेन्द्र प्रापने मिथ्यात्वरूप रात्रि को नाश किया है तथा चैतन्यद्वारों से पाप नष्ट होते हैं, ऐसा उपदेश दिया है । सम्यग्ज्ञान रूप अग्नि समस्त विश्व को चाहती है, परन्तु पाप उतना ही ज्ञेय उसे प्रदान करते हैं, जितने से प्राकुलता न हो । ज्ञानाग्नि कर्म रूप ईधन को जलाती है तथा प्रात्मगुणों का पोषण करती है । आपका अनुपम वीर्य अनुभव में प्राता है। आप अनन्तबलयूक्त, अनन्तशेयों को जानते हए अंतर्लीन हैं। प्रापरे समस्त पदार्थों को जान लिया है, अतः अब कुछ भी जानना बाकी नहीं रहा है। पाप एकरूप तथा अनेकरूप हैं। पापका उपयोग साकार (ज्ञान) तथा अनाकार (दर्शन) रूप से दो प्रकार का है । आप में दर्शन, ज्ञान तथा अनंतबल सदा विद्यमान रहते हैं। आप निष्प्रमाद ज्ञाता-दृष्टा हैं । प्रापका दर्शन-शान अविनश्कर है। आप षट्कारक रूप हैं। आपका देखना जानना स्वभावतः है, पर शेयों के कारण नहीं है । आपके दर्शन व ज्ञान कभी भी आपसे पृथक नहीं होते । आपने षट्कारक चक्र को अन्तगढ़ किया है। दर्शन-ज्ञान की क्रिया से शोभित पाप कर्ता, कर्म तथा करणरूप हैं । षट्कारकों को अंतगढ़ करने में प्रापन निपुणता प्राप्त की है। आप निराकुल, अखंडित, अंतर्बाह्य ज्योति रूप है। आपके द्वारा कथित तस्व को धारण करने वाला एकांती नहीं होता। आप अनन्त शक्तियों से शोभायमान हैं। दीपक की अग्नि से व्याप्त बाती की नीति की तरह मैं आपसे तन्मय होता हूँ। ___ द्वादश अध्याय में भी उक्त शुद्धनय की दृष्टि से वर्णन किया है । जिनेन्द्र को नमस्कार करते हए, उन्हें अनेकरूप होकर भी एकरूप ही सिद्ध किया। आकाश तथा कालगत पर्याय भी जिनेन्द्र के ज्ञान को नष्ट नहीं कर सकती। वे स्वचतुष्ट्य रूप हैं, पर रूप नहीं है। सर्वज्ञ रूप से जाने जाते हैं। वे एक ज्ञान रूप होकर भी अनन्तज्ञान रूप परिणमते हैं । वे शुद्धनय के समुद्र हैं। हे जिनेन्द्र आपकी ज्ञानधारा ऋम को आक्रान्त करके, अनाम से खींचती हुई, क्रम से खींची जा रही है। पर्याय क्रममुत्रः (क्रमबद्ध) है । पर्यायापेक्षा आप अनेक रूप तथा द्रव्यापेक्षा एक रूप है । आपन अनन्त भूत, भविष्य तथा वर्तमान को धारण कर एकरूपता नहीं छोड़ी। आपकी गहराई तथा ऊँचाई अज्ञात है। अन्तर्बाह्य प्रकाश रूप, ग्राप आक्षेप - परिहार (विधि-निषेध नीति से सुशोभित हैं। पाप तद्-अतद् रम्प स्वरूपसत्तावलम्बी, साधारण में असाधारणता धारण करने वाले हैं। श्राप ज्ञान शक्ति
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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