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: प्राचार्य प्रगृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
द्वारा अनंतधर्मात्मक स्वभाव में अवगाहन करते हैं । नन्वयीगण, व्यतिरेकी पर्याय परम्पर निमग्न होसी ई न्याप में निगा होशील है :ो नामाद
आदि चार प्रकार के प्रभावों की चर्चा की है । पर्यायलव को अनित्य तथा द्रव्यतत्त्व को नित्य बताते हुए जिनेन्द्र को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप लिखा है । आप भात्र को प्रभावता तथा प्रभाव को भावता प्राप्त कराते हैं । प्राप हेतु तथा हेतुमान भी हैं। सत्सामान्यापेक्षा आप न कार्यरूप हैं और न ही कारण रूप हैं, अपितु अखण्ड एक रूप हैं । आप परिपूर्ण होकर भी विभाव से खाली हैं, खाली होकर भी स्वाभाविक गुणों से परिपूर्ण हैं तथा पूर्ण होकर भी खाली व खाली होकर भी कुछ वृद्धि रूप (अर्थात् षड्गुणी हानि वृद्धिरूप) होते हैं। जिस प्रकार याप विज्ञानघन स्वभावी हैं, उसी प्रकार में भी बनू।
त्रयोदश अध्याय में शुद्धगय की दृष्टि से दर्शन की सर्वोच्च ! दिखाई है । प्रात्मा के संकोच-विस्तार स्वरूप का निरूपण किया है । स्तुतिकार लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र प्रापका ज्ञानमयो दिव्य शरीर स्व-पर प्रकाशक है ।
आप अादि अंत रहित, त्रिकालवर्ती पर्यायों का समूह, चैतन्यचमत्कार मात्र हैं। उसके साथ ही सुख, वीर्य आदि शक्तियों का वेदन होता है। आप अनंतधर्मात्मक, उपयोगमयी है। चेतन कभी अचेतन नहीं हो सकता, क्योंकि परद्रज्य अन्यद्रव्य की शक्ति हरण नहीं कर सकता। आप स्व-पर प्रमेय के जानकार हैं। अचेवनपदार्थ का ज्ञान अचेतन से नहीं, चेतन से होता है । आत्मज्ञान में परज्ञेयों का ज्ञान सिद्ध होता है । पर के ज्ञान बिना निज का भी ज्ञान सच्चा नहीं होता । दर्शन गुण पर पदार्थों के ज्ञान से दूर रहता है। पूर्ण स्वाधीन प्रात्मा के सहकारी कारणों का अभाव है। ज्ञान ही स्व-पर. प्रकाशक है। आत्मघाती, अनानीजन ही परपदार्थों का स्पर्श करते हैं तथा उनसे सहकार की अपेक्षा करते हैं। प्रात्मा ज्ञेय-ज्ञायक के भेदवाला तथा अभेदरूप भी है । सूर्य के प्रकाश में जगत् प्रकाशित हो तो भले हो, परन्तु सूर्य को तो प्रकाशपने की इच्छा नहीं है, इसी तरह यदि जगत् स्वयं ही ज्ञेय बनता है तो वन, ज्ञान तो बिना इच्छा के ज्ञाता है। अज्ञानी ही पर प्रकाशन की इच्छा करते हैं । अापका स्वरूप सहज स्व-पर प्रकाशक है । निश्चय-व्यवहार रूप इस जगत् की स्थिति ह्रास को प्राप्त नहीं होती।
आपकी चेतना सहज स्फुरित है, उसमें भेद परकृत होता है, जो आपको स्वीकार्य नहीं है । अाप अनंतवीर्य, क्षायिक ज्ञान तथा वीतरागता सहित । हैं । बहिरंग कारणों में निमित्त मात्र पना होता है, ऐसा वस्तु का निश्चित