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[ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तुत्व अर्थ किये गये हैं। इस प्रकार की शैली के प्रयोग टोकानों में अन्यत्र भी मिलते हैं। अष्टांत - वाष्र्टान्त कथम शैली :
दृष्टांत एवं दान्ति शैली का प्रयोग करके टीकाकार दृष्टांस में मूर्तपदार्थ का ना सिद्धान्त में व एकाई का लेश मरहे हैं। पाठकों को विषयवस्तु सुगम तथा सुबोध बनाने हेतु शिक्षण सूत्रों में मूर्त से अमूर्त । समझाने वाला सूत्र भी प्राता है । उक्त शली में इसी सूत्र का समाहार हुधा है । द्रव्य तथा गुणों के अभिन्नपदार्थपना सिद्ध करते हुए वे उक्त शैली में लिखते हैं - "वर्णरसगंधस्पर्शा हि परमाणोः प्ररूप्यंते, परमाणोरविभक्त प्रदेशत्वेनानन्येऽपि संज्ञादि व्यपदेशेन निबंधनविशेषेरन्यत्वं प्रकाशयन्ति । एवं ज्ञानदर्शने अप्यात्मनि सम्बद्ध प्रात्मद्रव्यादविभक्त प्रदेशत्वेनान्येऽपि संज्ञादिव्यपदेशनिबंधनविशेषः पृथकत्वमासादयतः नित्यमपृथकत्वमेव विभ्रतः। तुलनात्मक कथन शैली :
इस शंली का प्रयोग अमृतचन्द्र ने मुख्यतः दो वस्तुओं में भिन्नता सिद्ध करने तथा उनके भिन्न-भिन्न स्वभाव का प्रकाशन करने हेतू किया है। एक स्थल पर जीव तथा अजीव द्रव्य में भिन्नता निरूपित करते हुए वे लिखते हैं --
"इह हि द्रव्यमेकत्वनिबंधनभूतं द्रव्यत्वसामान्यमनुज्झदेव तदधिरूढ़विशेषलक्षणसभावादन्योन्यव्यवच्छेदेन जीवाजीवत्व विशेषमुपीकते । तत्र जीवस्यात्मद्रव्यमेवैकाध्यक्ति: । अजीवस्य पुनः पुद्गलद्रव्यं धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं कालद्रव्यमाकाशद्रव्यं चेति पञ्च व्यक्तयः । विशेषलक्षणजीवस्य चेतनोपयोगमयत्वं, अजीवस्य पुनरचेतनत्वम् । तत्र यत्र स्वधर्म ध्यापक त्वात्स्वरूपत्वेन प्रोतमानयानपायिन्या भगवत्या सेवित्तिरूपया चेतनया
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पाचास्तिकाय गा. ५१-५२ टीका अर्थ - "वर्ण-रस-गंध-स्पर्श वास्तव में परमाणु के कहे गये हैं। बे परमाणु से अभिन्न प्रदेणवाले होने के कारण अनन्य होने पर भी संज्ञादि प्रदेश के कारणभूत भेदों के द्वारा अन्यपने को प्रकाशित करते है। इसी प्रकार प्रात्मा के शान-दर्शन भी आरमद्रव्य से अभिन्न प्रदेशवाले होने के कारण अनन्य होने पर भी, संज्ञादि व्यपदेश के कारणभूत भेदों के द्वारा अन्यपने को प्राप्त करते हैं, परन्तु आत्मा स्वभाव से हमेशा अपृथक्पने को ही धारण करता है ।