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________________ ३८० ] पाई शापूरकन : यतित्व एवं कर्तृत्व आप चिपिंड हैं। तीनों लोक मानो आपकी चैतन्यता का एक पत्ता है । आपकी चैतन्य चान्दनीरूप सागर में मानो तीनों लोक डूब रहे हैं । पूर्व पर्याय, अपर पर्याय को नहीं स्पर्शती । पाप नित्य होकर भी परिवर्तनशील हैं । आप अमृतस्रोत, परमतृप्त, आत्मतेजयुक्त तथा स्वस्थ हैं। आपकी महिमा से हमारे विकारी भावप्राण नाश हो रहे हैं । आपकी महिमा अवर्णनीय है, 1 मैं आपके केवलज्ञान जल में स्नानकर, आलस्य रहित, आत्मलीन होता हैं। पंचविश अन्तिम अध्याय में कर्म तथा ज्ञान का समुच्चय रूप से वर्णन है । आप सर्वोदय की अवस्था को प्राप्त हैं । आपने संयम से असंयम को नाशकर कर्मों को निराकृत कर विज्ञानघन म्वरूप को प्रगट किया है। आप आत्मगरिमा तथा प्रात्मव्यापार युक्त हैं । आप अन्तर्बाह्य संयम के धारी हैं। पापका पात्मा परमार्थ रसिक और सवेदशी है । निपुण पुरुष क्रमशः क्रियाओं से विरक्त होकर ज्ञानस्थ होते हैं। आपने कर्म व ज्ञान के सुयोग को धारण किया है ! जो भाग्यवान् जिनागम का अध्ययन करते हैं, वे संयमामृत से ज्ञानभूमि को सिंचित कार अपने लक्ष्य को पा लेते हैं। अापके अनुभव में मत्त होकर भी साधक प्रमत्त नहीं होता। सम्यग्ज्ञान से ही बाह्य वस्तु का भी यथार्थज्ञान होता है। जो क्षणभर को भी रागादिरूप या करूप होता है। यह समस्त कर्म कालिमा को नष्ट नहीं कर पाता। आपमें समस्त भावरूप रस पीने से निर्मलज़ान की विशेषाताएं छलक उठी हैं । ऐसा भगवान प्रात्मा चैतन्य सागर तथा आश्चर्यों का भण्डार है । मेरे उस्कृष्ट संयम का पुटपाक ज्ञानाग्नि में सम्पन्न हो तथा स्वाभाव लक्ष्मी प्रगटे ऐसी भावना स्तुतिकार करते हैं। वे लिखते हैं कि इस स्तुतिरूप रस को अमृतचन्द्र कवीन्द्र ने अनेक बार पिया है । ग्रन्थान्त करते हुए लिखा है कि म्याद्वाद के मार्ग में, स्व-पर के विचार में, ज्ञान व क्रिया के अतिशयपूर्ण वैभव को विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक अपनजनों के लिए मेरी यह रचना दिशा प्रदर्शन करने वाली है। इस तरह अमृतचन्द्रमुरि की यह 'शक्तिमणित् कोश अपरनाम लघुतत्त्वस्फोट नामक कृति समाप्त हुई। इस तरह अध्यात्म तथा भक्ति की धाराओं के साथ दार्शनिक ज्ञान धारा का सम्मिलन करके अमृतचन्द्र ने इस रचना द्वारा जिनेन्द्र की स्तुति के नाम पर अपूर्व त्रिवेणी प्रवाहित की है । समग्र कृति में जनदर्शन के गूढ़तम सिद्धान्तों तथा आध्यात्मिक रहस्यों का भलीभांति प्रस्फुटन हुपा है। अतः उक्त कृति का नाम ''लघुतम्बस्फोट" सार्थक हो गया है।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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