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कृतियाँ ।
[ ३७६ चिन्मात्र तथा ऋजुभूत्रनय मे अग्निशिखावत् प्रकाशमान हैं। ऋजुसूत्र नय से ज्ञान के अनन्तांशों में एक अंश ही नाह्य होता है। साथ ही एक पर्याय मात्र विषय होने से पर्याय परम्परा भी नहीं बनती । श्राप में विचित्राकृतियों रूप परिणमन होता है । ज्ञान में जेय स्वयं प्रतिबिम्बित होते हैं, तभी तो उनकी भी मना स्वय सिद्ध होती है। आपका ज्ञान समस्त जगत को व्याप्त करता है। मका पर में, पर ना मार मार है किन्तु मन्द बुद्धियों को यह समझ में नहीं पाता । पर द्रव्य आपत्तिकारक होने से उसे छोड़ा है. यही आपका अपोहवाद है, जो ज्ञानियों को भ्रमनाशक है । परस्पर अपोहबाद से प्राप गत, यूगत और तथागत भासित होते हैं। शून्यतावादी बौद्धमत में क्या, कहाँ, किससे प्रतिभासित है इत्यादि कल्पनाएँ समाप्त हो जाती हैं। उक्त कल्पनाएं निर्णायक के अभाव में कौन निर्णय करेगा ? शून्यवाद से पदार्थों का प्रभाव सिद्ध होगा अतः उक्त सिद्धान्त स्वयं खण्ठित है । अन्त में कपना रहित निविक्रान्परूप गून्य में लीन होने की स्तुतिकार ने भावना की है।
* एकविश प्राध्याय में न्याय तथा वैशेषिक मतों की अालोचना है। गूणस्थान ग्रारोहण तथा प्रात्मशक्तियों का प्रकट होना जिनेन्द्र में पाया जाता है । एक-अनक, विशेषण-विशेष्य, बर्तना-वृत्तिमान, उत्पाद-व्ययप्रौव्य, पृथकत्व-अपथकत्व-सत् असत् सामान्य-विशेष आदि का विप्लत स्पष्टीकरण है। भाव-अभावरूपता, उनकी सापेक्षता तथा मापके मन में वन्तु का नाश न होना इत्यादि पर प्रकाश डाला है तथा अन्त में आप मेरे में प्रवेश करें अर्थात मैं भी आप समान बने ऐसी भावना भाई है ।
__ अन्तिम चार अध्यायों में ज्ञान दर्शन के आधार पर ही दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाया है । प्रायः उपर्युक विषय ही विभिन्न अलंकारों तथा शब्दविन्यासों द्वारा पुनरुक्त हुए हैं। अनन्त मुख स्वरूप, शेय-ज्ञान, अखंडता-खुण्डपना, भेद-भेद आदि युगलों की चर्चा की गई है। केवल मान की महिमा के साथ द्वात्रिंश अध्याय समाप्त किया।
योविश अध्याय में पूर्ववत् गुणों का · मरण विभिन्न विकन्पों द्वारा किया है तथा अनन्त-चतुष्टय प्रगट हो ऐसी भावना की है।
चतुर्विश अध्याय में लिखा है कि भाग्यहीन पाणी अापके स्वरूप का ध्यान नहीं कर सकता । आपका स्वरूपामृत पीकर कौन
आनन्द में मन नहीं होता ? शाप की गक्ति महान् है, अतः केवलज्ञान सागर को आपने मथा है । चतना ब चैतन्य में कवित् भेदाभेदपना है। उत्पाद-व्यय, अस्ति-मास्ति युक्त आपका भ्र व स्वभाव है