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________________ ३७० | [ प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की अभिन्नता, भाव-अभाव तथा उनमे परस्पर सापेक्षपना, द्रव्य का वाच्पना तथा अवाच्यपना, उनमें भी सापेक्षता, जिनेन्द्र का वान्य अवाच्य स्वरूप, शुद्धभाव कारण समूह में तथा कारक समूह शुद्ध भाव में लीन होना, कार्य व कारणपन की द्विरूपता इत्यादि का विवेचन किया है। आगे कहा कि लोग ज्ञान में निमित्तला बाह्य पदार्थों को मादा हेतु मार दो नको हैं तो बकते रहें, परन्तु बाह्य हेतु कदापि अन्तरंग हेतु नहीं हो सकता। वास्तव में जिनेन्द्र ने अपने स्वयं उपादान कारण से विश्वव्यापी विज्ञानधन ग्वभाव प्रगटाया है । व्यवहार से कर्ता-कर्म भिन्न कहे जाते हैं परमार्थ से वे भिन्न नहीं है। अाप स्वतः अाधार एवं प्राधेय हैं। ज्ञाता-ज्ञेय तथा बाचक-वाच्य दोनों में भिन्नता है । आप भविष्यत् अपेक्षा सिद्ध थे, वर्तमान में भी सिद्ध हैं तथा भूतकाल में अापके रागदशा थी, जो वर्तमान में वीतराग रूप हो चुकी है। ग्राप एक रहकर पुनः पुनः उत्पन्न होते हैं, तथापि वह अन्य द्रव्य की उत्पत्ति नहीं है। ग्राम विज्ञानधनस्वभाव एक रूप हैं तथा दर्शन ज्ञानादि अपेक्षा अनेक रूप हैं । हे जिनेन्द्र आप विरुद्धधर्म मंयुक्त वंभव वाले हैं । स्वतत्त्व का अाराधक आप में प्रवेश पाता है। एकोनविना अध्याय में भी उपयुक्त द्वत स्वभाव की चर्चा है । जिनेन्द्र पराश्रय, शून्य,संकर दोष प्रादि से रहित हैं । आत्मपरायण हैं, चैतन्य युक्त, पुद्गल भिन्न हैं तथा आत्मानन्द में रमण करने वाले हैं। आप निजभाव से परिपूर्ण, एक - सामा-य रूप हैं। प्रव, नित्य विशेषण युक्त हैं। पाप कभी प्रभाव पाता को नहीं धारण करते। आपके विशेषण पर से भिन्न, स्व में अभिन्न हैं । प्रात्मणों की भावना से स्वानुभूति प्रगटती है | व्यवहार से कारक भेद आप में हैं, निश्चय से नहीं हैं। कारण मे कार्य होता है । कर्माकर्म की कल्पना कलंक है | आप चैतन्य, त्रैकालिक, स्त्र-पर प्रकाशक, मानरूप, अशुद्धि रहित, भ्रम रहित, विभामय, निराकूल, पाश्चर्यकारी तेजयुक्त, विधिनिषेध स्वभाव मय तथा अपनी विमा से वनोंदिशामों कुत तथा काल कृत भेद को मिटाने वाले हैं। आपका ज्ञान स्वाधीन है । अापको जानने का प्रयास करने वाला स्व-पर ज्ञानी होता है । मैं भी मध्यस्थ होकर अपनी विभा का अनुभव तब तक करता हूँ जब तक पूर्ण ज्ञान ज्योनि नहीं प्रगटती । विश अध्याय में प्रमुखतः एकांतवादी बौद्धमत की अालोचना प्रस्त की है । व लिखते हैं कि सर्वथा एकांतवाद की वाणी स्यात् पद लगाने से एकान्त विष का वमन होकर सत्यामृत रूप बन जाती है । संग्रहनय से
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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