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________________ कृनियाँ । [ ३७७ रूप कगता हुअा आपरा ज्ञान है, उसमें वह ज्ञान भावलक्ष्मी से सुशोभित है । चराचर को चैतन्यभावरूप करता हा आपका ज्ञान है, उसमें वह भिन्नता को प्रतीति कराता है । प्रकाशहीन जगत् आपके ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित है । पापका ज्ञान विश्व को जानकर भी विश्वरूप नहीं होता । अापकी समस्त मान्टियां आत्मरस से सिचित हैं। यद्यपि परमागम त्रिकाल व त्रिलोक का प्रकाशक है, तथापि आपके केवलज्ञान के समक्ष वह जुगनुवत् ही है । हे जिनेन्द्र मेरा श्रुतज्ञान शीघ्र ही केवलज्ञानरूप बने । ____ सप्तदश अध्याय में स्यात् पद और उसके प्रतिपाद्य की चर्चा की है। विधि-निषेधरूप द्रव्यों का स्वरूप न्यान् पद द्वारा ही प्रतिपाद्य होता है । शब्द यात्मा की त्रिकाली दगाओं का प्रतिपादन नहीं कर सकते । नास्ति पक्ष की निरूपण की असमर्थता को स्यात्पद के प्रयोग द्वारा दूर करते हैं। शब्द बिधि पक्ष को मधुररूप में तथा निषेध पक्ष को अटुकरूप में व्यक्त करने है । शब्दों या वस्तु बान्य-वाचक को भिन्नता बनी रहती है। शब्द अर्थरूपता को धारण नहीं कर सकते, क्योंकि घट शब्द व घट अर्थ में भेदपना है. अभेदपना नहीं । जगत् को सल रूप कहकर समस्त वस्तुप्रों को प्रकट नहीं किया जा सकता, क्योंकि सत् को स्वयं असत् की अपेक्षा होती है । अग्ति की प्रात्मानुभूति पर की नास्ति पूर्वक ही होती है । तथा नास्ति की अनुभूति अस्ति पूर्वक होती है । जगत् में स्व-पर का विभाग है, अतः एक पक्ष के कथन में दूसरा पक्ष छूट जाता है ! एकांत रूप से जगत् को सत् या असत् कहना नहीं बनता, क्योंकि वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। वस्तु में भाव व प्रभाव तथा अस्ति में नास्ति ध्वनित है। इसी तरह नास्ति में अस्ति ध्वनिन है। विधि पक्ष प्रगट करने पर निषेध पक्ष भी प्रगद होता है। भ्यान पद में द्विधा निरूपक शक्ति है। शब्द की द्वं धता स्यात् पद से प्रगट होती है । एक पद में दो पक्ष व्यक्त हो सकते तो स्यात् पद की जरूरत न होती । उभय पक्षों की प्रगटता स्याहाद में ही होती है। विवक्षित कथन मृमय तथा अविविक्षित गौण होता है । म्यात्कार बिना पदार्थों की अनंतता तथा विधि अपेक्षा बिना मर्यादा व्यक्त करना सम्भव नहीं है । विधि निषेध में भी परस्पर मैत्री है, अतः स्यादाद के माध्यम से ही निजात्मा के स्वरूप की भरी बजायो। अष्टादश अध्याय में भी द्रव्य के दूत स्वभाव की चर्चा की है। केवलज्ञान ज्योति को स्मरण करते हुए एकब अनेकत्व, सामान्य विशेष, एकरूप अनकरूप, एक अनेक में परस्पर सम्बन्ध, नित्यानित्यता, द्रव्य-पर्याय
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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