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| प्राचार्य अमृतनन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ! तथा पर्याय द्रव्य बिना उदित नहीं होते । सूर्य व प्रकाश की भांति आथयी तथा प्राश्रय परस्पर आश्रित होते हैं । अस्ति नास्ति से तथा नास्ति अस्ति से बाधित होता है, परन्तु उभय पक्षों से बस्तुस्वरूप सिद्ध होता है । स्वचतुष्टयापेक्षा पदार्थ होते हैं, परापेक्षा नहीं । आपका महात्म्य वाच्य तथा अवाच्य उभयरूप है । वह क्रमशः वक्तव्य है तथा युगपत् प्रवक्तव्य है। इसी तरह एक-अनेक, अवयव-अवययी, नित्य-अनित्य इत्यादि युगलों द्वारा जिनेन्द्र स्तुति की है। जिनेन्द्र के मत में अंतरंग तथा बहिरंग उभयकारणों को यथारूप 'वीकारा गया है। आपका ज्ञान स्वकारण से तथा उसमें भेद पर कारण से होता है। प्रापका उपयोग स्व-पर अवभासक है । स्व-पर को मणिमय दीपक की तरह पाप प्रकाशित करते हैं । वस्तु का यह गौरव है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं होता । आपकी स्थिति स्वाश्रयी पराश्रयी उभय प्रकार की है । आप सर्वव्यापी होकर भी स्वसीमा में सीमित है। अपवाद (निषेध), तथा उत्सर्ग (विधि) से प्रापकी महिमा तत-प्रतात रूप हैं। निश्चय से आप गति रहित हैं, व्यवहार से गति युक्त हैं । पेले गये गन्ने से छलकते हुए रस की भांति श्रापकी विवेचना में प्रतिमा का पूर छलकता है। अापके चरणकमल पाकर मेरी मोह रूप रात्रि समाप्त हो गई है । आप मुझे अपनी गोद में स्थित कीजिये ।
षोड़श अध्याय में मंगलाचरण करते हुए स्तुतिकार लिखते हैं कि हे जिनेन्द्र आप अनंतज्ञान रूप अमृतरस के प्रदाता हैं। शांतरस के कलशों से धुलने से आपका कप्रायम्प रंग निकल गया है। ज्ञानशस्त्र से कषायों का नाराकर अापने यात्मशक्तियों को विकसित किया है । अंनतभवरूपी मम्भीर गर्त से निर्मल ज्ञान का प्रवाह बहता है। पाप में सोमातीत गम्भीरता तथा उदारता है । आप अनंतज्ञान से पूर्ण, परिमित प्रदेशी तथा वैभवयुक्त हैं। स्वभाव के प्राथय के कारण नष्ट नहीं होते । आपके ज्ञान में सर्वज्ञेय प्रतिबिम्बित तथा मत्स्यसमूह की भांति तैरते प्रतीत होते हैं । आपमें ज्ञान ज्ञेय सम्बन्ध होने पर भी शंकर दोष नहीं है । भेदाभेद रूप प्रात्मा अनुभव गम्य है । माप अनेक तथा एक स्वभाव का अनुभव करते हुए अनंत शक्तियों के कारण अनंत है। अनंत भावरूप परिणमन के साथ प्रापका वैभव प्रगट होता है। आपका ज्ञान समस्त गुणपर्यायों सहित परद्रव्यों को पी सा रहा है । आपका ज्ञानास्त्र तीक्ष्ण है तथा आप ज्ञान लक्ष्मी से सुशोभित हैं। चराचर को चतन्यभाव रूप कराता हम्रा पापका ज्ञान है, उसमें वह ज्ञान भावलक्ष्मी से सुशोभित है । चराचर को चैतन्यभाव