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कृतियो ।
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पुरुषार्थ सिद्ध युपाय का मर्म तत्कालीन विद्वान पण्डित रंगनाथ से समझा था। पण्डित गिरधर मिश्र का यश भी अमृतचन्द्र कृत समयसार कलशों का अमृतमयी अर्थ बखान करने के कारण फैला था । टीकाकार अन्त में लिखते हैं कि इस दुखमा पंचमकाल रूप ग्रीष्म ऋतु से संतप्त, जगत् जंजाल में पड़े भव्य-जीवों को शीतलता प्रदान करने वाली उपदेशामृत की वर्षा करने वाले आचार्य अमृतचन्द्र यतिबर मेघ समान धन्य हैं । टीकाकार भूधरमिथ की टीका की अंतिम प्रशस्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है । वह अन्य पुरुषार्थ सिख युपाय तथा ग्रन्थकार आचार्य अमृतचन्द्र पर बहुमूल्य प्रकाश डालती है। साथ ही टीकाकार के समकाल तथा पूर्वकाल में भी उक्त कृति के व्यापक प्रचार-प्रसार को प्रभावित करती है ।
कठिन अधं अवधारन कियो, भाषा वचनरूप लिखि लिमौ ।
असी भांति बचनिका भई, स्वपर हेत हितकारण ठई ।। ८ ॥ छप्पय - अमृत चन्द्रकृत काव्य कलश तहां अर्थ सुधारस ।
गिरधर मिश्च मटीक ठान मुखरूप लियो जस ।। बुधिबलवंत उदार तास रस को आस्वादहि । हमसे अपढ़ अजान हीनवल कसे लाघहि ।। दुजे रंगनाथ पंडित प्रचुर, स्वपर शास्त्र मर्मज्ञ नर ।
तिनके सहाय सत्रांग लव अर्थलाभ उपगारवर ।। || सोरठा - श्रुत समुन्द्र बहुमान, तहां कौन भूले नहिं ।
असे कहत महान, और दीन किस पंक्ति में ।। १० ।। दोहा - भूधर की यह बीनती, मुनियो सज्जन सोय ।।
गुन के गाहक हूजियो, दोस न लीजो कोय ।। ११ ॥ ___ गुन ग्राही शिशु थन लग, रूधिर छोड़ि पय लेत ।
यह बालक सों सीखिये, जो सिर पाये सेत ।। १२ ।। अडिल्ल – सब सौ मैत्री भात्र हरष गुन में करी।
दुखित मुखित को देखि दया चित्त में घरो ।। तहां रहो मध्यस्थ जहां विपरीत है।
चार भावना रूप जैन की रीति हैं ।। १३ ।। दोहरा – चार भावना चिन धरौ यथाशक्ति अनुठान् ।
जिनपुजी श्रत सांभलौ, सीख समापित जान ।। १४ ।। गीतिका - संवत् अठारह से इकोत्तर मास भादौ बर. तीया ।
शुभ शुक्ल पक्ष मुगन्ध दशमी ग्रन्थ लिखि पूरण किया ।