________________
दार्शनिक विचार ।
[ ४३६ है कि व्यवहार नय अभूतार्थ है तथा जो केवल व्यवहार नाय को अनुभव करने वाले हैं वे मिथ्याइष्टि हैं और पथभ्रष्ट भी हैं।' व्यवहारनय कथंचित् प्रयोजनीय है :
प्राचार्य अमृतचन्द्र में जहां एक ओर व्यवहार नर के कथन को अभूतार्थ या असत्यार्थ का प्रकाशक होने से अनुसरण न करन योग्य लिखा है वहीं दूसरी ओर उनमें उसे हस्ताबलम्न तुन्य बताकर उसकी समुचित स्थापना भी की है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि प्रथम भूमिका में कदम रखने वाले पुरषों को वह व्यवहार नय सखेद हस्तावलम्ब समान है, तथापि जो पुरुष चैतन्य चमत्कारगाव परद्रयों तथा परभावों से भिन्न परम "अर्थ" को अपने अंतरंग में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं तथा उसमें लीन होकर चरित्रभाव को प्राप्त करते हैं उन्हें यह व्यवहार नए फुल्छ भी प्रयोजनबान नहीं है। एक अन्य स्थल पर भी इसी सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि जो पुरुष अंतिम ताव से पच्यमान शद्ध स्वर्ण के समान परमभाव को अनुभवता है उस शुद्धनय ही जानन्द में आता हुआ प्रयोजनवान हैं, परन्तु जो पुरुष उस्कृष्ट भाव का अनुभव नहीं करते, उन्हें अशुद्धद्रव्य को बाहने वाला, भिन्न-भिन्न एक एक भाबम्बम्प अनकभावों को दिखाने बाला यवहार नय जानने में प्राता हुआ प्रयोजनवान है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कोई भी भय का कथन सवथा परिपूर्ण वस्तुस्वरूप का निक नहीं होता है अपितु एकांश का निरूपक होता। साथ ही सापेक्ष नय हा सम्यक् नय हे सर्वथा निरपेक्षा नव मिथ्या नव हैं । अस्तु नयों के कथनों के सत्यार्थ अभिप्राय या भावार्थ को यथा प्रसंग यथाचित जानना तथा मानना चाहिए । व्यवहार की स्थापना भी न्यायसंगत है :
प्राचार्य अमृत चन्द्र ने नयों का यथार्थ-अयथार्थपना ही प्रदर्शित
तस्मान्न गयागत नि व्यवहारः स्यालयोनभूनाथ . 1 जवलमनुभवितारसास्थ व निच्या गो हतास्तेऽपि ।। ६३६, पन्नाध्याची प्र.अ. व्यवहाणनग. याद्यपि प्राकादम्यामिह नितिपदानां हंत हस्तावलंबः । तदपि पभमर्थं नियमकारमाभं पर विरहितमंत: पश्यता नर किचित् ।।
स. मा. ना. ५. ३. गमवनार गा १ मी आत्मरूपाति टोक । ४. गिरानया मिश्या सापेक्षा धस्तु तेऽर्थकृत ।। देवागम स्त्रोत, १०८,