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________________ ४४० । | प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व नहीं किया है, अपितु उनके प्रयोग का कहाँ कितना नौचित्य है, इसका भी भली प्रचार प्रकार स्पष्टीकरण किया है। व्यवहार नय को जहां वे अभुतार्थ - अयथार्थ लिखते हैं, वहीं वे उसे स्थापित करने योग्य भी लिखते है क्योंकि मलेच्छभाषा को भांति व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ बतलाने वाला है, इसलिए वह स्वयं अपरमार्थभूत होन पर भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के लिए व्यवहार नय बतलाना न्यायसंगत हो है । यदि व्यवहार न बताया जावे और परमार्थ गे (निश्चय स) जीव को शारीर मे भिन्न बताया जाने पर भी जैसे भाम (राख) को मसल देने पर हिंसा का अभाव है, उसी प्रकार अस स्थावर जीवों को निःशकतया मसल देन, कुचल देने या बात करने पर भी हिंसा का ग़भाब ठहरेगा और इस कारण बंध का भी प्रभाव सिद्ध होगा तथा परमार्थतः जीव राग-द्वेष से भिन्न बताये जाने पर भी रागी दुषी, मोही जीव कर्म से बंधता है उसे छडाना चाहिए" ऐसे मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा और इससे मोक्ष का भी प्रभाव होगा जो सिद्धांत विरुद्ध है । उत्त कथन से स्पष्ट है कि परमाध्यात्मी परन्तु अनेकांती ग्राचार्य अमृतचन्द्र ने सर्वत्र एकान्त के झुकाव से जगज्जनों को सावधान किया है। जहां एक ओर वे व्यवहार नयको अनुसरण करने लायक नहीं हैं - लिखते हैं, वहां दूसरी ओर चे व्यवहार नय को दिखाना न्यायसंगत सिद्ध करते हैं। इससे यह भी निश्चित होता है कि एकांत चाहे व्यवहार नयना हो या निश्चय नय का, वह अनर्थ की परम्परा का ही कारण है। निश्चय नय की एकांत स्थापना से भी अनर्थ परम्परा का ही जन्म होता है: निश्चय नय की एकांत स्थापना में होने वाले अनर्थ को दिखाते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि जो जीव यथार्थ में निश्चय के स्वरूप को तो नहीं जानता था अयथार्थ को ही निश्चयरूप से अंगीकार करता है, यह मूर्ख बाह्य क्रिया में आलसी है। वह बाह्य क्रियारूप आचरण को नाश करता है। अतः हे भव्य जीवो यदि तुम जिनमत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ (व्यवहार मार्ग) का नाश हो जायेगा तथा - --- १. समयमार, गा. ४६ प्रारमख्याति टोका। २. निश्चयमयुध्यमाना यो निशनमास्तमेव संथयते । नाशयति करण चरण स बहिः कारणालत्तो बालः || पु. सि., ५० !
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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