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दार्शनिय विचार ।
[ ४४१ निश्चय के बिना तत्त्व का नाश होगा।' यहां विशेष जान देने योग्य बात यह है कि दोनों नयों का ग्रहण किस प्रकार करना चाहिए ? वहां आगम में निश्चय नय की मुरूग्रता लिए कथन हो, वहां तो "सत्यार्थ ह", बस्तु वरूप ऐसा ही है - ऐसा मानना, तथा जहां व्यवहार नय की मुस्यता से कथन हो वहां ''असत्यार्थ है' ऐसा है नहीं, किसी अपेक्षा उपचार किया है इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नय का ग्रहण है, परन्तु दोनों नयों को समान रूप से सत्यार्थ मानना भूल है। मिथ्यात्व है। दोनों नयों का कथन (स्वरूप) परस्पर विरोध लिए हुए है अतः दोनों को समान रूप से सत्यार्थ नहीं माना जा सकता । अस्तु । नयों के भेव :
प्राचार्य अमृतचन्द्र ने प्रत्येक तथ्य के निरूपण में अपने पूर्वाचार्यों की सिद्धांत परम्परा को ही विशेष रूप से स्पष्ट किया है। उन्होंन प्रमाण, नय तथा निक्षेप को अधिगम ज्ञान) का उपाय बतलाते हुए नयों के मूलतः दो ही 'भेद लिये हैं, वे हैं द्रव्याथिक तथा पर्यायाथिक । वहां द्रव्य पर्यापात्मक वस्तु में द्रव्य की मुममतः अनुभव करने वाला दयाशिम नग दै तथा पर्याय की मुख्यता से अनुभव कराने वाला पर्यायायिक नय है। ये दोनों नयों का पर्याय से अनुभव करने पर भूतार्थ हैं. सत्यार्थ हैं और द्रव्य व पर्याय से अनालिगित शुद्धवस्तुमात्र जीव के चैतन्य स्वभाव का अनुभव करने पर प्रभूनार्थ हैं। अन्यत्र इन्हीं दो मूल भेदों का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि भगवान् ने दो नय कहे हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । वहां कथन एक नय के प्राधीन नहीं होता किन्तु दोनों नयों के पाधोन होता है। इसलिए वे पर्यापार्थिक कथन से जो प्रपन से कथचित् भिन्न नी है ऐसे अस्तित्व में व्यवस्थित हैं तथा द्रव्याथिक कथन से स्वयमेव सत (विद्यमान होने के कारण अस्तित्व से अनन्यमय हैं । उक्त दो नयों का
.:. उक्त -- ''जह जिण मयं गवाह ता मा यवहाररिगए मुयह । एकेगा विणा जिइ तिल्यं अगण उण तच्च ।।
-समयसार गा. १२ की दीका. २. मा. मा. प्रकाशक अ. ७. प. २५१. ३. वही अ. ७. पृ. २४८. ४. रामयसार गर. १? आत्मख्याति । ५. पंवास्तिकाय गा, ४ कोटीका ।