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________________ १४० ] [ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व न खलुदयं व्यन्तराणामारम्भः, सर्वद्रव्यानां स्वभाव सिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादि निधनं हि न साधनातरमपेक्षते । गुणपर्यायात्मानमात्मनः स्वभावमेव मूलसाधनमुपादाय स्वयमेव सिद्ध सिद्धिमद्भुतं वर्तते । यत्तद्रव्यैरारभ्यते न तदव्यांतर कादाचिकत्वात् स पर्यायः । द्वयणकादिवन्मनुष्यादिवच्च । द्रव्यं पुनरनवधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्थात् । अर्थवं यथासिद्धं स्वभावतराव द्रव्यं तथा सदित्यपि तत्स्वभावत एव सिमित्यवधार्यताम् । सत्तात्मनास्मनः स्वभावेन निष्पन्ननिष्पत्तिमद्भावयुक्तत्वात् । न च द्रव्यादर्थान्तरभूता सत्तोपपत्तिमभिप्रपद्यते, यतस्तत्समवायात्तत्सदिति स्यात् । सनः सिद्ध हैं । (हेतु या तर्क) स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादि निधनता से है । (हेत कामादिनिधन को वास्तव में साधनांतर (अन्यसाधन) की अपेक्षा नहीं होती। वह गृणपर्यायात्मक अपने स्वभाव रूप मूलसाधन को धारणकर के स्वयमेव सिद्ध हुमा वर्तता है। (निगमन) जो द्रव्यों से उत्पन्न होता है वह द्रव्यांतर नहीं है । (प्रतिज्ञा), क्योंकि कादाचित्वता (अनित्यना) के कारण बह पर्मान है । (हेनु), जैसे दुखयगुराक इत्यादि तथा मनुष्य पर्याय इत्यादि (उदाहरण), द्रव्य तो अनधि भयौदारहित) त्रिगमय अवस्थायी (त्रिकाल स्थायी) होने मे उत्पन्न नहीं होता। प्रत्र इस प्रकार जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है, उसी प्रकार वह स्वभाव से ही सतरूप सिद्ध है ऐसा निर्णय हो, क्योंकि सत्तात्मक अपने स्वभाव से निष्पन्न हुए मानवाला है। द्रव्य से अयांतर भूत सत्ता उत्पन्न नहीं होती कि जिसके भमवाय में दून्य सव हो। इसी को स्पष्ट समझाने हैं - प्रथम तो सत से सत्ता को युतसिद्धता दिखाई नहीं देती। दूसरे अयुतसिद्धता में भी वह अर्थान्तरत्व नहीं बनता । "इसमें वह है" (न्य में सत्ता है) ऐसी प्रतीत होती है इसलिए वह बन सकता है ऐसा रहा जाय तो (हम पूछते हैं वि.) "इस में यह है" ऐसी प्रतीति किसके प्राश्रय (कारग) स होती है। यदि नहा जाय कि भेद के प्राथय से होनी है, तो वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक था अताभाविक ? प्रादेशिक तो है नहीं क्योंकि युतसिद्धत्व पहले ही निरर्थक कर दिया गया है और यदि अदाभाविक कहा जाय नो वह उत्पन्न ही है. क्योंकि ऐसा (शास्त्र) का वचन है कि जो द्रव्य है वह गुरण नहीं है; परन्तु (यह भी ध्यातव्य है कि) वह मताद्भाविक भेद एकांत से "इसमें यह है" ऐसी प्रतीति का कारण नहीं है, क्योंकि वह स्वयमेव उन्मग्न (उत्पन्न) तथा निमग्न (नाश) होता है ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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