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________________ व्यक्तित्व तथा प्रभाव 3 [ १४१ सत्तायाश्च न तावद्युत सिद्धत्वेनार्थान्तरत्वं तयोर्दण्डदण्डिवद्युत सिद्धस्यादर्शनात् प्रयुत सिद्धत्वेनापि न तदुपद्यते । इहेदमितिप्रतात्पद्यत इति चेत् कि निबन्धना होहेदमिति प्रतीतिः। भेदनिबन्धनेति चेत् को नाम भेदः । प्रादेशिक अताद्भाविको वा । न तावत्प्रादेशिकः पूर्वमेवयुक्त सिद्धत्वस्यापसरणात् । अताद्भाविकश्चेत् उपपन्न एवं यद्द्रव्यं तन्न गुण इति वचनात् । अयं तु न खल्वेकान्तेने हेदमिति प्रतीतेनिबंधन, स्वयमेवोन्मग्ननिमग्नत्वात्- इस तरह उक्त भाष्य में सर्वत्र अनुमान शैली के अंगों का प्रयोग किया है। साथ ही न्यायशास्त्रविषयक शब्दावलि - युत सिद्ध अयुत सिद्ध निष्पन्न- निष्पत्तिमद्भाव सिद्धसिद्धमद्भुत भाव, प्रश्नोत्तर, तर्कवितर्क, ऊहापोह आदि का प्रयोग प्रचुरमात्रा में किया है, जिससे अमृतचन्द्र की तार्किक व न्यायज्ञान रूप प्रतिभा का परिचय भलीभांति हो जाता है । एक स्थल पर प्रमुखरूप से सालंकार, ऊहापोह रूप सुन्दरतम शैली में "उत्पादव्यय तथा ध्रौव्य के परस्सर अविनाशीपने की सिद्धि करते हुए वे लिखते हैं — १. प्रवचनसार गाथा १०० की टीका- अर्थ वास्तव में उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता और व्यय उत्पाद के बिना नहीं होता, उत्पाद और व्यय स्थिति (चव्य) के बिना नहीं होते, और श्रोग्य उत्पाद तथा व्यय के बिना नहीं होता । जो उत्पाद है वही व्यय है, जो व्यय है वही उत्पाद है, जो उत्पाद और व्यय है वही भव्य है, जो भव्य है वही उत्पाद तथा व्यय है । उसी प्रकार जो कुम्भ का उत्पाद है वही मृत्तिकापिण्ड का व्यय है, क्योंकि भाव का भावांतर के प्रभाव स्वभाव से अवभासन है। जो मृत्तिकापिण्ड का व्यय है, वही कुम्भ का उत्पाद है क्योंकि अभाव का भवांतर के भावस्वभाव से अवभासन है तथा जो कुम्भ का उत्पाद और पिण्ड का व्यय है वही मृतिका की स्थिति है, क्योंकि व्यतिरेक अन्वय का प्रतिक्रम नहीं करते, और जो मृत्तिका की स्थिति है वहीं कुम्भ का उत्पाद और पिण्ड का व्यय है क्योंकि व्यतिरेकों के द्वारा ही अन्वय प्रकाशित होता है। और यदि ऐसा न माना जाय तो फिर यह सिद्ध होगा कि उत्पाद अन्य है, व्यय अन्य है तथा घोच्य अन्य है (अर्थात् तीनों भिन्न हैं परन्तु तीनों भिन्न मानने में जो दोष उपस्थित होगा उसे कहते हैं) केवल उत्पादखोजक कुम्भ की उत्पत्ति के कारण का प्रभाव होने से उत्पत्ति ही नहीं होगी, तब समस्त ही भावों की उत्पत्ति हो नहीं होगी अथवा यदि असत् का उत्पाद होने लगे तो आकाशमादि का भी उत्पाद होगा (जो
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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