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[ आचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व आचार्य अमृनचन्द्र का समग्न बाङमय, चाहे वह गद्य हो, पद्य हो अथवा मिश्र, रसाप्लावित है । पद-पद पर उनके वाक्यों से अध्यात्म का रस छलकता है। उनके पद्यों में आत्मानभूति का रसातिरेक यत्र तत्र सर्वत्र द्रष्टव्य है। उनकी आत्मख्याति समयसार कलश युक्त टीका में निश्चयनय की कथ नशेनी द्वारा प्रात्मानभूनि का रस का सष्ठ परिपाक हआ है । अनिर्वचनीय आनन्द के उल्लेख भी उसमें उपलब्ध होते हैं । उक्त टी. के मंगलाचरण रूप प्रारम्भिक पद्य में अपने शुद्धात्मा को नमस्कार करते हए लिखा है कि द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्म से रहित शुद्धात्मा समयसार है उसे नमस्कार हो। वह शुद्धात्मा अनुभूति के द्वारा प्रकाशित होता है। यह चैतन्य स्वभाव वाला है, सत्तास्वरूप है तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला है। उक्त, शुद्धात्मा की अनुभूति शुद्धनय निश्चयनय के आश्रय से होती है । वह आत्मानुभूति ज्ञानानुभूति ही है। ऐसा जानकर आत्मा का अनुभव करना चाहिये। ऐसे आत्मानभव का आनन्द अनिर्वचनीय होता है। उममे दूतभाव नहीं होता। निश्चयनयाश्रित वह अनभव चैतन्य चमत्कार मात्र तेजपुञ्ज रूप होता है , ४ प्राचार्य अमृतचन्द्र ऐसे शुद्धात्मा के अनुभव में निरन्तर संलग्न रहते हैं। वे लिखते हैं कि शुद्धात्मा को ऐसी महिमा है, जिससे वह एकमात्र प्राने हो अनुभव से जानने में आता है तथा उस समय वह व्यक्त एवं ध्रव ज्ञान होता है । ऐसी अनन्त चैतन्य लक्षण वाली प्रात्म ज्योति जो एकत्व से च्यत न होने वाली तथा निर्मलता के साथ दिन होने वाली है, उसे वे सदा अनुभव करते हैं। इतना ही नहीं, उस चैतन्यज्योति आत्मा के अनुभव रस के रसास्वादन की प्रेरणा भी आचार्य अमृतचन्द्र ने की है । वे लिखते हैं - हे जगज्जनों अनादि संसार में भाज तक मोह का अनुभव किया है, उसे छोड़ो और प्रात्मरसिकजनों को रूचिकर,
१. नमः समयसाराय स्वानुभूत्या नकामते ।
चित्स्वभावाय भावार सर्वभावान्तरन्देि ।। समयसार कलश नं. १ २. भात्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिकाया, ज्ञानानुभूतिरियम व जिले ति बुद्ध का।
अात्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्प, मेनोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात् ।।१३।। ३. "अनुभव गुपयाते भाति न हूँतमेव" (समयसार कलश ६) ४. 'अतः शुद्धनयायत्त प्रत्याज्योतिश्च मास्ति तन् ।' (वही, कलमा ७) ५. "यात्मात्मानुभवकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते घ्र वम् ।" वहीं, कला १२ ६. "अपतितमिदमात्मज्योतिरूद्गच्छदच्छम् ।
राततमनुभवामोऽनन्त चैतन्य चिन्हम् ।। बही, कलश २०