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________________ व्यक्तित्व तथा प्रभाव ! [ ६१ सदित होते हुए ज्ञानस्वभाव का अनुभव करो, रसास्वादन करो ।' उक्त शुद्धात्मा का रसास्वाद आबालवृद्ध सभी कर सकते हैं, परन्तु अनादिकालीन बन्ध के कारण पर द्रव्यों के साथ एकत्व बुद्धि के कारण अज्ञानी बना हुआ है, आत्मज्ञान प्रगट नहीं होना । आत्मानुभुति से माध्य निजात्मा की सिद्धि अन्य किसी प्रकार से नहीं हो सकती । इस प्रकार स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र जिस आत्मामृत के रसिक है उसी के रसिक बाल-वृद्ध सभी जगात् बने, तदर्थ वे अपने साहित्त्व द्वारा जगत् का परम कल्याणकारी प्रेरणा करते हैं । उनके समग्र साहित्य में यदि कोई रस अगोरस - प्रमुखरस के रूप में रसोत्कर्ष को प्राप्त हुआ है तो वह है शांतरस । शनिरस, अध्यात्म रस, परमानन्दामून, ज्ञानरस आदि सभी एकार्थवाची है। इस प्रकार अध्यात्मर सिक अमृतचन्द्र की रसानुभुति जब गद्यम्प में अभिव्यक्त हुई तो उनका गद्य राहज हो प्रौढ़तम गद्यवैशिष्ट्यों से अनुप्राणित हो गया और चे प्रौढ़तम गद्यकाव्यकार के रूप में प्रादुर्भून हए। जब भावोस्कर्ष आनन्दानभूति के रूप में प्रकट हुआ. तब उनको अभिव्यविम भावयाही द्याव्य के रूप में प्रवाहित हुई और वे ?ममिद्ध कवीन्द्र अथवा पद्य काम्पकार के रूप में प्रगट हुए। जब भावों का उतार चढ़ाव अनवरत प्रवाहित हुआ तब उनकी अभिव्यक्ति गद्य पद्यात्मक रहः पार वे चम्पकाव्य लेखक के रूप में व्यक्न हा। यहां उनके गद्यकाव्यकार के रूप का आकलन प्रस्तुत है। अमृतचन्द्र गद्यकाव्यकार – विद्वानों ने गद्य को पदियों की निद्धता की कसौटी माना है । संस्कृत साहित्य में 'गद्य कवीनां निकष वदन्ति" की उक्ति प्रचलित है । पद्यकाव्य की अपेक्षा काव्यर्शनी में गद्य निखने वाले लेखकों की संख्या बहुत थोड़ी है। संस्कृत गद्यकाव्यकारों में सूबन्ध, बाणभट्ट, दण्डी, बावीसिंहमूरि आदि प्रमुख हैं।* आचार्य अमृतचन्द्र १. ''वजनु जगदिदानी मोहमा गन्मलीन, रसयतु रसिवानां चनं ज्ञानमुद्यत् ।' गमयमार कलश २२ २. यदा त् याबाल गोपालव सकल काल व स्वयनयानुभयपानेऽपि भगवत्यनुभूस्थागत्यात्मन्यनादि बन्चनशान परः समनस्वाध्य बनायन विमुहस्यध्यमहमनभुतिरित्यात्मज्ञान नोप्य नया ....."सध्यसिझेरन्यथा नुवपत्तिः ।" समयसार गाथा १७ १८ श्री ग्रामख्यानि टीका ३. कादम्बरी, प्रस्तावना पृष्ठ २ यात्राकार-कृष्णमोहनावार. १६६३ ४. महाकवि हरिचन्द-एक अनुशीलन, पृष्ठ ४
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
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