SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ । [ प्राचार्य अमृतचन्द्र ; व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व भी इन्हीं प्रमुख गद्य काव्य लेखकों की कोटि में अग्रणी हैं। उनका गद्यसाहित्य प्रायः टोकायों के रू। में उपलब्ध है। उनके गद्य में प्रौढ़तम गद्यकाव्यों की अनेक विशेषताएं प्रस्फुटित हुई हैं। उनकी समस्त गद्यकृतिया में 'आत्मख्याति टोका" अपने आप में एक अनुपम निधि है। इसमें भाषा की गन्भोरता, प्रौढ़ता तथा महज'ना देखते ही बनती है। भाववाही, अर्थवाही, तथा मर्मस्पर्शी भाषा अध्यात्मतन्त्र के गुढ़तम रहस्यों की उदघाटक है। उनकी गद्य काव्यधारा नहीं महज तथा सुगम कहीं क्लिष्ट और दुर्गम, कभी मंदप्रवाहयुक्ल तो कभी तीमावेगयुक्त एवं रस-छंद तथा अलंकार बन तरंगिणी की भांति प्रतीत होनी है। संस्कृत कार चन्द्रमा या कलशों पर टीका रचकर उसका नाम 'परमाध्यात्मतरंगिणी" रखा है । इस अध्यात्म तरंगिणी में अवगाहन करने वालों को अभूतपूर्व आनन्द तथा शांतिलाभ होता है। उनके मरल, सुगम लघुवाक्यावलि यक्त तथा चमत्कारी गद्य के कई उदाहरण उनकी टीका कृतियों में उपलब्ध हैं। उनमें से कुछ का अवलोकन कराया जाता है : अमृतचन्द्र एक स्थल पर आत्मा की श्रेष्ठता, उसको ज्ञानमयता तथा ज्ञानस्वभाव के अवलम्बन का फल निरूपण करते हुए वे लिखते हैं"आत्मा किलरमार्थः, सस्तू ज्ञानम; आत्मा च एक पदार्थः, ततो ज्ञानमप्येकमेव पदं, यदेतत्त ज्ञान नामक पदं स एष परमार्थः साक्षानमोक्षोपायः ।......."ततो निरस्त समस्तभेदमात्मस्वभावभूत ज्ञान मेवेकमालम्व्यम् । तदालम्बनादेव भवति पदप्राप्तिः, नश्यति भ्रांतिः, भवत्यात्मलाभः, सिध्यत्यनात्मपरिहारः, न कम मुच्छन्न, न रागद्वेषमोहा इतालवतं, न पुनः कर्म प्रास्रवति, न पूनः कर्म बध्यते, पागबद्ध कर्म उपभुक्तं निर्जीयंत, कृत्स्नकर्माभावात साक्षान्मोक्षो भवति । '' यह है उनके सरल, सुगम, १, मम पसार गाथा २०४ी दीका - उ: गद्य का हिन्दी अर्थ इस प्रकार है : .. "अात्मा वास्तव ने परमपदार्थ है। वह (मात्मा) ज्ञान है। अात्मा एक ही पदार्म है. इसलिए ज्ञान भी एक ही पद है। यह ज्ञान नामक एक पद परमार्य रवरूर मोक्ष का उपाय है । ......."इलिए जिममें समस्त भेद दूर हुए हैं ऐसे अात्मस्वभात्रभूत एक ज्ञान का ही अवलम्बन करना चाहिय, उसके अवलम्बन से ही निजपद की प्राप्ति होती है, प्रांति का नाश होता है, ग्राामा का लाभ होता है और अनात्मा वा परिहार सिद्ध होता है ! ऐसा होने से-कर्म वल बान नहीं होने, रागढ़ प मोह उत्पन्न नहीं होते, अतः पुनः नवीन कर्मों का मानव नहीं होता, उससे पुनः नवीन कर्मबन्ध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्म मुक्त होकर निरा को प्राप्त हो जाता है, समस्त कर्मों का प्रभाव होने से साक्षात् मोक्ष होता है।"
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy