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कृतियाँ ।
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यहां से सुख अधिकार प्रारंभ होता है। इसमें प्रारंभ में ज्ञान और सूख की अभिन्नता, अतीन्द्रिय ज्ञान की प्रधानता व उपादेयता और इंद्रियज्ञान की पराधीनता व हेयपना दिखलाया है । अतीन्द्रिय सुख का साधनभूत ज्ञान उपादेय है, तथा इन्द्रियज्ञान इन्द्रिय सुख का साधक होने से हेय तथा निन्दनीय है। इन्द्रिय ज्ञान विषयों में युगात नहीं प्रवर्तता, वह प्रत्यक्ष भी नहीं होता, परोक्ष होता है । इन्द्रियों स्वयं पर हैं, उनके आश्रय से होने वाला ज्ञान राक्ष ज्ञान है। प्रत्यक्ष ज्ञान प्रात्माधित तथा सुख रूप है। केवलज्ञान को एकांततः सुखरूप न मानने का वण्डन तथा उसकी सुखस्वरूपता का मण्डन करते हुए केवलियों के ही परमार्थ सुख होता है इसका श्रद्धान कराया है। आगे इन्द्रिय सूख को दुखरूप तथा आत्मसुख के लिए शरीर सुख का खण्डन किया है । वैक्रियक शरीर भी मुख का कारण नहीं है । आत्मा स्वयं सुत्र शक्ति संपन्न है अतः उसे विषय सुख अकार्यकारी है । अन्त में आत्मा का मुखस्वभाव दृष्टांतों द्वारा दृढ़ किया गया है।
प्रथम विभाग का अन्तिम अधिकार शुभ परिणाम अधिकार है। इसमें इन्द्रिय सुख के साधनों का विचार किया है ।सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की पूजा, दान, शील तथा उनवासादि में प्रवृत्त आत्मा शभोपयोगी है। शुभोपयोगी पारमा इन्द्रिय सुख को प्राप्त ज. रता है। वास्तव में इन्द्रिय सुख दुःखरूप ही है । इन्द्रिय सुख भृगुप्रपातउच्चपर्वतशिखर से पतित होने के समान है। इन्द्रिय मुख का जनक पुण्प है और उस पुण्य का माधक शुभोपयोग है, वह देवादिक त्री विभूति का कारण है तथा अशुभोपयोग नरकादि गतियों के दुःख का कारण है, परन्तु दोनो में आत्मीक मुख का अभाव होने के कारण दोनों समान हैं। दोनों में अन्तर नहीं है। शुभोपयोग जन्य पुण्य भी आगामी दुःखों का बीज होने से हेय है। पुण्योदय में तृष्णाबीज दुःख वृक्षरूप में वृद्धि को ही प्राप्त होता है। पुण्य भी सुखाभास रूप दुःख का ही साधन है । इन्द्रिय सूख पराधीन, बाधासहित, विनाशीक तथा बन्ध का कारण व विषम है अतः दुःख ही है । इसलिए जो जीव पुग्ण तथा पाप में अन्तर मानते हैं वे घोर अपार संसार में ही परिभ्रमण करते हैं। अत: शुभ और अशुभ उपयोग में विशेषता
१. प्रवचननार, तत्वप्रदीपिका बत्ति, गाथा ५३ में ६३ तबः । २. वही, गाथा ६४ से ६० तक। ३. वही, माथा ६६ से ७७ नक ।