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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व न मानकर दुःखक्षय के कारणभूत शुद्धोपयोग ही शरणभूत मानना चाहिए। मोह सेना को जीतने का उपाय बताते हुए लिखा है कि जो अर्हन्त को द्रव्य गुण तथा पर्याय से जानता है वह अपने प्रात्मा को भी जानता है, उसका मोह क्षय को प्राप्त होता है। प्रागे कहा कि शुद्धात्मानुभूति रूप चिंतामणि रत्न को पाकर उसे, प्रमादरूप चोर से बचाने हेतु जागत रहना चाहिए। यही समस्त अहंतों द्वारा अपनाया गया विधान है जिससे कर्मक्षय किया जाता है, सभी अहंतो ने उससे कर्मक्षय किया है अत: अन्य को भी उसका उपदेश दिया गया है। शुद्धात्मस्वभाव का लुटेरा मोह तीन प्रकार का है - मोह, राग तथा दुषरूप । उसको भलीभांति जानकर नाश करना चाहिए।' मोहनाश के उपायों में सबसे पहले आगम का सम्यक प्रकार अभ्यास करना चाहिए। जिनेन्द्र के शब्दब्रह्म में द्रव्य, गुण तथा उनकी पर्यायों को "अर्थ" कहा गया है। प्रात्मा भी गुण - पर्यायों रूप व्रव्य है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव का उपदेश प्राप्त होने पर ही पुरुषार्थ कार्यकारी होता है। आगे, मोहक्षय का मुख्य कारण स्वपरविवेक (भेदविज्ञान) की प्राप्ति है अतः उसकी प्राप्ति का प्रयल करने का उपदेवा दिया गया है। उक्त स्वपरीववेक की सिद्धि आगम के अनुसार करना चाहिए । क्योंकि जिनेन्द्रोक्त अर्थो के श्रद्धान बिना धर्मलाभ नहीं हो सकता । अन्त में आगमकुशल, निहतमोहदृष्टि तथा वीतराग चारित्र में मारून महात्मा श्रमण ही साक्षात् धर्म है इस प्रकार उक्त अधिकार समाप्त होता है। साथ ही प्रथम विभाग जिसे प्रथम श्रुतस्कंघ कहा है, वह भी समाप्त होता है । २. झेपतत्त्वप्रज्ञापन --
इसमें प्रथम द्रव्यसामान्य अधिकार है जिसमें प्रारंभ में पदार्थों का सम्यक स्वरूप द्रव्य-गुण-पर्याय का निरूपण किया गया है। इसके अंतर्गत विस्तार सामान्य समुदाय एवं प्रायत सामान्यसमुदाय,
१. प्रवचनगार, तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति गाथा ७८ से ८५ तक । २. वही, गामा ८६ में ! २ तक । ३. विस्तार अर्थात् नौड़ाई । वहाँ सर्व गुणों में व्याप्त भ्य को विस्तार सामान्य
कहा है। ४. यामत अर्थात् लम्बाई। यहां कालापेक्षित कमभावी पर्यायों में व्याप्त द्रव्य
को आयत सामान्य कहा है।