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कृतियाँ |
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विस्तार विशेष' व आया विशेष का स्वरूप स्पष्ट किया है । पर्याय के द्रव्यपर्याय तथा गुणपर्याय दो हैं। यी दो प्रकार की कही गई है। प्रथम समानजातीय, जैसे पुद्गलस्कंध और द्वितीय असमानजातीय, जैसे मनुष्य देवादिपर्याय | गुणपर्याय भी दो प्रकार कही है; स्वभावरूप दथा विभावरूप । यहां प्रसंगोपात्त स्वसमय व परसमय की व्यवस्था भी दर्शाई है । पश्चात् क्रमशः द्रव्य का लक्षण तथा उसके सामान्य विशेषगुणों का उल्लेख, स्वरूप था सादृश्य दो प्रकार का अस्तित्व स्वरूप, द्रव्यों से द्रव्यांतर सथा सत्ता का अर्थान्तरत्व होने का खण्डन, उत्पाद व्यय भव्य रूप सत् द्रव्य का लक्षण, उत्पाद व्यय श्रीव्य का कथंचित् अविनाभाबीपना इत्यादि का अत्यंत गंभीर दार्शनिक सतर्क व सोदाहरण स्वरूप स्पष्टोकरण किया है। आगे उत्पादादि द्रव्य से भिन्न नहीं है, वे तीनों द्रव्यरूप है, उनका क्षणभेद ग्राह्य नहीं है इत्यादि का निरूपण है । द्रव्य के उत्पाद व्यय श्रव्य का अनेक तथा एक द्रव्यपर्याय के द्वारा विचार किया गया है। सत्ता और द्रव्य में द्रव्यांतर नहीं है, पृथकत्व तथा अन्यत्व का स्वरूप स्पष्टोकरण, अतद्भाव का स्वरूप, अतद्भाव का अर्थ सर्वथा अभाव नहीं है, सत्ता और द्रव्य में गुण गुणी भाव को सिद्धि, गुण गुणों में अनेकत्व का खण्डन, द्रव्य के सत् उत्पाद तथा पर्याय के असत् उत्पाद होने को सिद्धि सत् का उत्पाद अन्यत्व द्वारा सिद्ध किया जाना, असत् का उत्पाद अन्यत्व द्वारा सिद्ध किंवा जाना, एक ही द्रव्य के प्रत्यत्व सथा अनन्यत्व में भासित विरोध का परिहार किया जाना इत्यादि प्रकरणों पर गंभीरतापूर्वक विवेचन किया है । तत्पश्चात् समस्त विरोधों को दूर करने वाली सप्तभंगी कां स्वरूप दर्शाया गया है । सप्तभंगी के सान भग है । वे क्रमशः इस प्रकार है - स्यात् अस्ति, स्थात् नास्ति स्यात् रक्क्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् प्रस्ति अवक्तव्य स्यात् नास्ति वक्तव्य तथा स्यात् अस्ति अवक्तव्य | आगे मनुष्यादि पर्यायों को जीव की मोहयुक्त क्रिया के फल निरूपित किया गया है। मनुष्यादि पर्यायों में जीव के स्वभाव का कारण स्पष्ट करते हुए जावद्रव्य का द्रव्यापेक्षा अवस्थिति नवा पर्यायापेक्षा
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१. यहाँ द्रव्य में सहभावी रूप से रहने वाले गुण को विस्तार विशेष कहा है । २. यहां कालापेक्षित क्रमभावों द्रव्य से अभेद पर्याय की आयत विशेष कहा है। ३. प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति गाथा २३ मे १०० तक |
४. प्रवजनसार तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति गाथा १०२ से ११४ तक ।