SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ ] | आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व ज्ञयों को जानता है, उनमें प्रविष्ट नहीं होता । ज्ञान पदार्थ में प्रवृत्त होता है तथा पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं । यह प्रवृत्ति होने पर भी आत्मा पर द्रव्य का ग्रहण ल्याग नहीं करता।' जो वास्तव में युतशान के द्वारा ज्ञायरस्वभावी आत्मा को जानता है, वह श्रुतकेवली नहलाता है । ज्ञान और श्रुत में अभेदपना है । आत्मा ज्ञानक्रिया वार्ता तथा ज्ञान उसका करण है। आगे ज्ञान तथा ज्ञेय का स्वरूप दिखलाते हुए द्रव्यों की प्रतीत, अनागत पर्यायें भी तात्कालिनः पर्यायों की भांति पथक, रूप से ज्ञान में वर्तती हैं। इसकी सिद्धि की है। प्रागे अविद्यमान पर्यायों का कथंचित विद्यमानपना तथा अविद्यमान पर्यायों को ज्ञानप्रत्यक्षता सिद्ध की गई है। इन्द्रिय ज्ञान में होना तथा अतः - नाना संभव नहीं है । ज्ञेयार्थ परिणमनरूप क्रिया ज्ञान में से नहीं होती । वह क्रिया वर्मोदय के काल में अज्ञानी द्वारा स्वयं ही मोह रागद्वेषादि रूप परिणमित होने से, अज्ञानी के होती है, वह उस क्रियाफल का भोक्ता भी है । आगे दृष्टांत पूर्वक लिखते हैं कि जिस प्रकार योग्यता का सद्भाव होने पर स्रियों में अनायास मायाचार युक्त प्रवृत्ति देखी जाती है, उसी प्रकार केवली भगवान के बिना प्रयास ही खड़े रहना, बैठना, विहार आदि क्रियाय स्वयमेव होती हैं, वे क्रियायें बन्ध साधक नहीं होती। यहां यह भी स्पष्ट कहा है कि केवली भगवान की तरह समस्त संसारी जीवों के स्वभाव घात का प्रभाव नहीं है अपितु संसारी जोवों में कथंचित् स्वभाव का विघात विद्यमान है। अर्हतों का पुण्योदय स्वभाव घात नहीं करता अतः अकि चित्कर है। इसीलिए उदयापेक्षा उनकी क्रियायें औदयिकी कही जाती हैं परन्तु मोहादिरहित होने से क्षायिकी भी कहलाती हैं । अतीन्द्रिय ज्ञान सबको जानता है । जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता । जो एक को नहीं जानता, वह सबको नहीं जानता । साथ ही क्रम से प्रवर्तमान ज्ञान सर्वगत सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए युगपत् प्रवृत्ति मानने पर ही ज्ञान का सर्वगतत्व सिद्ध होता है। अन्त में केवलज्ञानी के ज्ञप्ति क्रिया का सद्भाव होने पर भी बंधक्रिया का अभाव सिद्ध किया गया है । १, प्रवचनकार, न त्वदीपिकावति, गाथा २१ से ३२ तक २. वही, गाथा ३३ से ३७ तयः । ३. वहीं, गाथा ३८ से ४४ तक । ४. वहीं, गाथा ४५ से ५२ तक ।
SR No.090002
Book TitleAcharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUttamchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy