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कृतियाँ ।
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का उल्लेख तथा फल निरूपण किया।' इतना कथन पीठिका रूप में किया । पश्चात उपशीर्षक के रूप में अधिकारों में प्रथम शद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ किया है।
इसमें शुद्धोपयोग के फल की प्रशंसा, शद्धीपयोग परिणत आत्मा का स्वरूप तथा उससे होने वाली भावशुद्धि की प्रशंसा का निरूपण किया गया है। पश्चात् शद्धोपयोग से शद्वात्मस्वभाव की प्राप्ति बताकर "स्वयंभू" भगवान बनने हेतु अन्य कारकांतरों की अपेक्षा का निषेध किया है । षट्कारक पत्र निजात्मा में ही घटिन होते हैं । यथार्थ में परद्रव्यों के साथ आत्मा का कारक सम्बन्ध नहीं है । इसलिए शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के लिये आत्मा को सामग्री (बाह्यसाधन-बाह्यनिमित) खोजने में परतंत्र होने की आवश्यकता नहीं है। आग शुखात्मस्वभाव सम्पन्न स्वयंभू के अविनाशीपने तथा कथंचित् उत्पाद व्यय-ध्रौव्यपने को सिद्ध किया है । आत्मा को इन्द्रियों के बिना भी ज्ञान और आनन्द होता है। यह आनन्द अतीन्द्रिय होता है । उसमें शारीरिक सुख दुखादि नहीं होते। यहां शुद्धोपयोगाधिकार समाप्त होता है।
इसके बाद ज्ञानाधिकार प्रारंभ होता है, जिसमें क्रमशः अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणत केवली भगवान को सर्वद्रव्यक्षेत्रादि प्रत्यक्ष है, कुछ भी परोक्ष नहीं है. ऐसा निरूपण किया गया है। आत्मा को ज्ञानप्रमाण तथा ज्ञान को ज्ञेय प्रमाण कहा गया है । ज्ञेय में लोकालोक गर्मित है अत: माम सर्वगत-सर्वव्यापक है । आत्मा को ज्ञान प्रमाण न मानने वालों के मतं में दुषण बताते हुए लिखा है कि पार्टी को ज्ञानप्रमाण न मानने से आत्मा को ज्ञानहोन मानना पड़ेगा तथा ज्ञान को अचेतन मानना होगा और यदि आत्मा ज्ञान से अधिक माना जायेगा तो वह ज्ञान के बिना कसे जानेगा? इस प्रकार प्रात्मा का ज्ञान को भांति सर्वंगतत्व न्याय से सिद्ध होता है । आत्मा और ज्ञान में समवाय सम्बन्ध स्वभार सिद्ध है, अत: दोनों में एकत्व है परन्तु ज्ञान की भांति आत्मा में अनन्त गुण हैं, वे परस्पर भिन्न लक्षण वाले हैं, अत: आत्मा और ज्ञान में कथचित् अन्यत्वं भी है । ज्ञान और ज्ञेय एक दूसरे में प्रविष्ट नहीं होते । जिस प्रकार चक्ष रूप को जानता है परन्तु रूप में प्रविष्ट नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञान
१. प्रवचनसार, गाथा १ से ११ तक दीका । २. प्रवचनसार, तत्त्वादीपिकाति, गाथा १२ से १६ ताः । ३, वही, गाथा १७ से २० तक।