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[ आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्त्व एवं कातृत्व
निर्विवाद है। जैनतत्त्वज्ञान की परम्परा में यद्यपि अनेक प्रामाणिक आचार्य हुये हैं तथापि अमृतचन्द्राचार्य उनके टीकाकारों में अग्रणी हैं। तत्त्वप्रदीपिका टीका प्रवचममा र सत्कृिष्टया मालाही हाक है। प्रवचनसार पर शताधिक आचार्यों एवं विद्वानों ने टीकायें रची परन्तु वे सभी टीकायें तत्त्वप्नदीपिका के बाद ही परिगणित होती हैं । वे सभी टीकायें किसी न किसी रूप में प्राचार्य अमृतचन्द्र की टीका से प्रभावित तथा अनुप्राणित अवश्य हैं । जैनतत्त्वज्ञान तथा सिद्धांतों के पूर्ण अधिकारी एवं गम्भीर झाला होने से आचार्य अमृतवन्द्र परमप्रामाणिक आचार्यों में से हैं, अत: उनकी टीकाओं की प्रामाणिजाता भी सहज सिद्ध है । परवर्ती विद्वानों ने अपनी कृतियों में अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका के प्रमाण प्रस्तुत किए हैं । विषय वस्तु -
सम्पूर्ण ग्रंथ मुख्यत: तीन विभागों में विभाजित है । प्रथम में ज्ञानतत्त्व, द्वितीय में ज्ञेयतत्व तथा तृतीय में चरणानुयोग सूचक चूलिका का प्रज्ञापन किया गया है। ये तीनों विभाग अपने आप में उपशीर्षकों में भी विभाजित हैं, जो इस प्रकार हैं ।
प्रथम बिभाग ज्ञान तत्त्व-प्रज्ञापन, शुद्धोपयोग, ज्ञान, सुख तथा शुभपरिणाम नामक चार उपशीर्षकों में विभाजित है।
द्वितीय विभाग ज्ञयतत्त्व-प्रज्ञापन, द्रव्यसामान्य, द्रव्यविशेष तथा ज्ञानज्ञेय प्रकरणों में विभक्त है। तुतीय विभाग चरणानयोगसूचक चूलिका के अंतर्गत आचरण प्रजापन, मोक्षमार्ग-प्रज्ञापन, शुभोपयोग-प्रज्ञापन तथा पंचरत्न-प्रज्ञापन - ये चार प्रकरण हैं । अंत में एक परिशिष्ट द्वारा ४७ नयों के माध्यम से आत्मद्रव्य का कथन किया है । यहाँ प्रत्येक विभाग में वर्णित विषयवस्तु का संक्षेप में परिचय कराया गया है । १. ज्ञानतस्व प्रशापन -
उक्त विभाग का आरम्भ मंगलाचरण पूर्वक किया गया है। इसमें ज्ञानानंदमयी परमात्मा को नमस्कार करके, अनेकांतमय ज्ञान की स्तुति की लथा ग्रन्थ की टीका करने का प्रयोजन परमानंद सुधारस के पिपासु भव्यजनों का कल्याण करना बताया है। प्रथम वीतराग चारित्र को सपादेय तथा स राग चारित्र को हेय सिद्ध किया। चारित्र का स्वरूप, आत्मा और चारित्र की एकता तथा आत्मा के शुभ-अशभ तथा शुद्ध परिणामों