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कृतियां ]
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शब्दों का प्रयोग किया है। इस प्रकार का नामकरण समग्र कृति का सार, स्थितिप्रकाशक, सार्थक एवं समुचित है । उभय नामों - "तत्त्वदीपिका" तथा तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति" का प्रयोग प्रारम्भ से होता रहा है हिरी तत्त्वाटोपिकावुनि नाम अधिक उपयुक्त प्रतोत होता है । टीका कर्तृत्व -
आत्मख्याति की भांति तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति के रचयिता के सम्बन्ध आज तक किसी भी बिद्वान् को विप्रतिपत्ति नहीं हुई। सभी ने एकमतेन उक्त टीका को अमृत चन्द्र कृत ही निरूपित किया है।
इस टीका के अन्त में भी टीकाकार प्रवचनसार की टीका का कर्तृत्व स्वयं स्वीकार नहीं करते हैं क्योंकि कर्तत्व का विकल्प भी मोह भाव होने से परमार्थ से उक्त विकल्प हितकारी नहीं है। वे लिखते हैं कि उक्त टीका के कर्ता अमृतचन्द्र नहीं हैं, अमृतचन्द्र को उसका कर्ता (व्याख्याता) मानकर मोह से मत नाचो । विशुद्धज्ञान की कला तथा स्याद्वादविद्या के बल से एक, सकल, शाश्वत, याकुलतारहित निजात्मा को ही प्राप्तकर आत्मानन्द में नाचो ।'
प्रत्येक अध्याय के अन्त में "इति प्रवचनसारवृत्तौ तत्त्वदीपिकायां श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापनो नाम प्रथमः श्रुतस्कंधः समाप्तः" इत्यादि उल्लेख मिलता है।
इस तरह उक्त टीका भी आचार्य अमृतचन्द्र को ही रचना प्रमाणित है। प्रामाणिकता -
आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं में निहित तत्वों तथा भावों को आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मसात् करके ही उन पर टीकाओं को रचना को है अत: उन टीकाओं की प्रामाणिकता मूल ग्रन्थ से किसी प्रकार कम नहीं है । यदि आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी में दियध्वनि का सार निहित है तो अाचार्य कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र की टीकाओं में कुन्दकुन्द के ग्रंथगतसार का ही विस्तार है, अतः उनकी कृतियों की प्रामाणिकता
१. व्यास्येयं विल विश्वमात्मसाहत व्याख्या तु गुम्फे गिरां ।
व्याख्यातामृतचन्द्रमुरिरिति मा मोहाज्जनो बलातु । वलगत्वद्य विशुद्धबोधकलया स्याद्वादविद्यामलात, लब्धर्वक सकलात्मशाश्यतमिद स्वं तत्वमव्याकुलः ॥
(तत्त्वप्रदीपिकावृत्तिः पद्य नं० २०