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। आचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
२. प्रथम अतस्कंध सिद्धांत परम्परा षट्खण्डागम, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि ग्रन्धों में निबद्ध है। कुन्दाकुन्दाचार्य के शिष्य झाचार्य उमास्वामी ने उक्त सिद्धांत परम्परा का सार मूलरूपेण निबद्ध करके 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक महा नसूत्रग्रन्थ की संस्कृत में रचना की। आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त तत्वार्थसूत्र के आधार पर "तत्त्वार्थसार'' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया, जिसमें तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों का पद्यरूप में सरलीकरण तथा विशदीकरण किया, इससे अमृतचन्द्र की जनदार्शनिक सिद्धांतों की विज्ञता भी प्रमाणित होती है।
३. वे जैन आचारपरंपरा विषयक परणानुयोग के सिद्धांतों के भी मर्मज्ञ थे। उनकी मौलिक रचना पुरुषार्थसिद्धयुपाय इसका ज्वलंत प्रमाण है। इस ग्रन्थ में वर्णित अहिंसा सिद्धांत का विशद् विवेचन विद्वानों को भी विस्मयकारी हैं। ऐसी अनूठी सिद्धांतविवेचना अन्यत्र दुर्लभ है ।
४. नवीन उपलब्ध "लघुतत्त्वस्फोट" नामक भक्तिकाव्य विषयक बेजोड़ कृति तो जैन सिद्धांतों का खजाना ही है, साथ ही आचार्य अभूनचन्द्र की सिद्धांतज्ञता का चिरस्थायी स्मारक है। इस ग्रन्थ में जिनेन्द्रदेव' की स्तुति के बहाने प्राचार्य समंतभद्रस्वामी के युक्त्यनुशासन, देवागमस्तोत्र, स्तुतिविद्या, तथा स्वयंभूस्तोत्र ग्रन्थों की तरह दार्शनिक सिद्धांतों की गुत्थियों को एक थेष्ठतम काव्यकलाकार की हैसियत से सुलझाया तथा स्पष्टीकरण किया गया है। उनके पंचास्तिकाय तथा प्रवचनसार की टीकाओं में उनके सिद्धांतज्ञान का चरमोलर्ष देखने योग्य है।
५, अपनी टीकानों में विभिन्न सिद्धांतों के स्पष्टीकरण के साथ हो पूर्वाचार्योक्त गाथाओं के "उक्तञ्च" के रूप में उद्धरण प्रस्तुत कर उनकी सम्पुष्टि की है। उदाहरणार्थ "कर्मग्रन्थप्रतिपादितजीव गुण मार्गणास्थानादिप्रपंचित विचित्रविकल्परूपैः लिखकर गोम्मटसार आदि कर्म सिद्धांत विषयक ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
१. देखिये - पंचास्तिकाम गाथा १४६, १७२ की टोकाएं। प्रवचनसार गाथा
५२, १६६ लथा २७५ की टीकाएं। समयसार गाथा १२, ३०५ की
टीकाएं। २. पंचास्तिकाय गाया १२३ की टीका ।