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व्यक्तित्व तथा प्रभाव ]
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अन्य कृतियों में प्रयुक्त विपुल संख्या में धातुरूप अथवा क्रियापद भी उनके संस्कृत भाषा के अधिकार को प्रकट करते हैं । विपुलकाय वाक्यावलि, दीर्धसामासिक पदावलि, अप्रयुक्त तत्सम तथा तद्भव शब्दावलि, अनेक गद्यशैलियां तथा संस्कृत भाषा विषयक अनेक विशेषताएं उनके सफलतम तथा उच्चकोटि के भाषाविद रूप व्यक्तित्व के प्रबल प्रमाण हैं। उनकी कृतियों में अप्रयुक्त क्लिष्ट शब्दों की संख्या भी बहुत है। उन अप्रयुक्त शब्दों का अर्थ सर्वसाधारण को सरलता से ग्राह्य नहीं होता है। उनका अर्थ जानने हेतु शब्दकोष का सहारा लेना पड़ता है ।
उनवी सभी कृतियों में संस्कृत भाषा का प्रौढ़तम रूप विद्यमान है शिष्टयो समाप: शिमों को पद पद पर देखा जा सकता है। संस्कृत के विख्यात प्रौढ़ पूर्ववर्ती गद्यकारों के गद्य से भी अधिक प्रौढ़ तथा परिमाजित गद्य तथा अध्यात्मरसभरित, सुन्दर, सालंकार एवं लयात्मक गद्य उनके श्रेष्ठ भाषाविज्ञ होने के प्रबल प्रमाण हैं।
प्राचार्य अमृतचन्द्र सिद्धान्तज्ञ के रूप में
आचार्य अमृतचन्द्र उच्चकोटि के सिद्धान्तज्ञ थे। जिस प्रकार ताथकर महावीर के बाद अनेक सिद्धांतपारगामी आचार्य हा; परन्तु उनमें आचार्य कुन्दकुन्द का नाम सर्वाधिक विध त एवं प्रामाणिक माना जाता रहा है, उसी प्रकार जैन सिद्धांतसुत्रों के तलस्पर्शी वेत्ता अनेक टोकाकार आचार्य हुए, परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक टीकाकार के रूप में माना जाता है। इसका प्रमुख कारण है उनकी सिद्धान्तज्ञता। आचार्य कुन्दकुन्द के सूत्र तीर्थंकरों की वाणी का सार है, उस सार को हृदयंगम करके सफलतापूर्वक उसका मर्म प्रकट करने का श्रेय विशेष रूप से टीकाकार अमृतचन्द्र आचार्य को है । उनके सिद्धांतज्ञ होने के कुछ आधार इस प्रकार हैं
१. अमृतचन्द्र कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत ग्रन्थों के टीकाकार हैं। कुन्दकुन्दाचार्य को द्वितीय श्र तस्कंध सिद्धांत परम्परा का ज्ञान प्राप्त था। वह सिद्धांत परम्परा मुख्यतः अध्यात्मपरक तथा शुद्धद्रव्याथिक नय की कधन शैली से सम्बद्ध है। इसी सिद्धांतपरम्परा के टीकाकार प्राचार्य प्रभृतचन्द्र हैं, अतः स्पष्ट है कि वे अध्यात्मपरक सिद्धांतों के तलस्पर्शी, गम्भीर अध्येता तथा व्याख्याता थे।