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[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
यदि हि द्रव्यं स्वयं सदात्मकं न स्यात् तदा स्वयमलदात्मकं सत्तातः पृथग्वा ? तत्राद्यः पक्षो न भवति, यदि सत् सद्रूपं द्रव्यं तदा असद्रूपं ध्रुव निश्चयेन न नं तत् भवति । कयं केन प्रकारेण द्रव्यं खरविषाणवत् । अथ सुत्तातः पुनरन्यद्वा पृथग्भूतं द्रव्यं भवति तदा पृथग्भूतस्यापि सत्त्वे सत्ता कल्पना व्यर्था । सत्तासम्बधात्सत्त्वे चान्योन्याश्रयः सिद्धं हि तत्सत्त्वे सत्तासम्बन्धसिद्धिः तस्याश्च सम्बन्ध सिद्धी सत्य तत्सत्वसिद्धिरिति तत्सत्त्वसिद्धिमन्तरेणापि सत्तासम्बन्धे खपुष्पादेरपि तत्प्रसङ्गः । तस्मात् द्रव्यं स्वयं सत्ता स्वयमेव सदभ्युपगन्तव्यम् । ( प्रवचनसार मरोज भास्कर अ. २/गाथा १३ ) ( प्रमेलकमलमार्तण्ड प्र. पृ. ७४ से उद्धृत )
इस प्रकार उपर्युक्त अवतरणों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि श्राचार्य अमृतचन्द्र की तार्किक, दार्शनिक, गम्भीर तथा प्रौढ़ टीका शैली का प्रभाव प्रभाचन्द्र पर अवश्य पड़ा है ।
आचार्य श्रमितगति द्वितीय पर प्रभाव ( ६६३ - २०२१ ) - ये माथुर संघ के विद्वान् नैमिशेण के प्रशिष्य तथा माधवसेन के शिष्य थे । ये विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के विद्वान् थे। उन्होंने अपनो गुरुपरम्परा में वीरसेन, देश्सेन, अमितगति प्रथम, नेमिषेण, माधवमेन आदि का उल्लेख किया है। इनकी उपलब्ध कृतियाँ इस प्रकार हैं- सुभाषितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, उपासकाचार, पंचसंग्रह, आराधना, तत्स्वभावना ( सामायिकपाठ), भावनाद्वात्रिंशतिका आदि। उन्होंने इनकी रचना १०५० से १०७३ के बीच की थी। अमितगति द्वितीय पर आचार्य अमृतचन्द्र का गहरा प्रभाव पड़ा है, जिसके कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं:१. अमितगति ने अमृतचन्द्र द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की उन्हीं के समान शब्दों में पुनरावृत्ति की है। उदाहरण के लिए अभूतचन्द्र ने मद्य (शराब) को बहुत से जीवों की योनि ( जन्मस्थान ) निरूपित किया है। उन्होंने मद्य सेवन से उन जीवों की हिंसा होना भी बताया है । इसी बात का उल्लेख लगभग इन्हीं शब्दों में आचार्य अमितगति ने भी किया है। दोनों आचार्यों के मूल पद्य इस प्रकार हैं:
१. जनसाहित्य का प्राचीन इतिहास - भाग-२, पृष्ठ २८८ ( पं. परमानन्द शास्त्री)