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कृतियां ।
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भावी विचित्र पर्यायसमूह वाले, गम्भीर तथा अगाध स्वभाव वाने समस्त द्रव्यमात्र को, मानो वे द्रव्य ज्ञायक स्वभाव में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गरे हों, कीलित हो गये हों, डूब गधे हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हुए हों, इस प्रकार - एक क्षण में ही (वह शुद्धात्मा. प्रत्यक्ष करता है । टीकाकार की मुल शब्द संरचना इस प्रकार है - "अथैकल्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्ण-लिखितनिखात - की लित - मज्जित - समावर्तित - प्रतिबिम्बितबत्तत्र क्रमप्रवृत्तानन्त भूतभवद्भाविविचित्रपर्याय प्रारभारमगाधस्वभावं गम्भीर समस्तमपि द्रध्यजातमेक क्षण एव प्रत्यक्षयन्तं ......" पद्यरचना में उत्प्रेक्षालंकार का सौन्दर्य भी दृष्टव्य है :
प्राकारकलिताम्बर-मुपवन राजीनिर्गीण भूमितलम् ।। पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ।।
इसी तरह रूपक अलंकार का प्रयोग टीका कार न अपनी गद्य तथा पच उभय विधाओं में बहुशः किया है । उनको “लघुतत्वस्फोट" नामक कृति तो उत्प्रेक्षा अलंकार से प्राधान्य मण्डित है। रूपकालंकार के भी अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं :मोक्षलक्ष्मी स्वयंवरायमाण........ (प्रवचनसार गा. ५ को टीका) महामोहमलस्य जीवदवस्थत्वात्...' (वही गा. ५५ की टोका। संसारसागरे भ्रमन्तीति............ (पंचास्तिकाय गा. १७२ की कीका) प्रमादकादम्बरीमदभरालसचेतसो..... (वही, गा, १७२ टीका। महता मोहनहेण..........
(समयसार गा. ४ टीका) सम्यग्बोधमहारथरथिनान्येन ........ (वहीं, गा. ८ टीका) इति विविधभंगगहने......... (पु. सि. पद्य ५८) परममहिसारसायनं लब्ध्वा ....... (पु. सि. पद्म ७८) अनकांतमयीमूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम ""(समयसार कलश - क्र. २॥ प्रानंदामृतनित्यभोजि.........।
(समयसार कलश - क्र. १६३) उदितममृतचन्द्रज्योति.....
(वही, कलश क्र. २७६) १. प्रवचनसार ~ टीका गा. २००, २, समयसारकलश क्र. २५ का अर्थ – यह नगर ऐसा है कि मानों जिसने कोट के
द्वारा आकाश को ग्रसित कर रखा है, बगीचों की पंकियों से मानों भूमितल को निगल लिया हो और कोट के चारों ओर की खाई के घेरे में म नों पाताल को पी रहा हो।