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[प्राचार्य अमृत चन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व "प्रवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेगुकुट्टनीमात्रस्पर्श इव, सफरस्य बाडिशा मिषस्वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतछ गस्य प्रदीपा रूप इब, कुरगङमस्य मृगेयुगेयस्वर इव,"......."
(प्रवचनसार गा. ६४ की टीका) ....."कुशील मनोरमामनोरम करेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत्'
अात्मख्याति टी. गा. १४७) पद्यरचनात्रों में उपमा का रूप वर्शनीय है -
तज्जयति पर ज्योलिः समं समस्तरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिका यत्र ।।' इतियो नतरक्षार्थ सततं पालयति सफलशीलानि । वरयति पतिबरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदनी ।। २
प्राचार्य अमृतचन्द्र की रचनायों में अलंकार ही नहीं, अपितु उनके भेद-प्रभेदों का भी अवतरण पथावसर हुआ है । उपमा के भेदों में पूर्णोपमा, लुप्तोपमा प्रादि का प्रयोग देखने को मिलता है। समयसार कलश में एक स्थल पर "उदितममृतचन्द्र ज्योतिरेतत्समंतात्" पद द्वारा प्रात्मा को अमृतचन्द्रज्योति अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा के समान ज्योति कहा है, जो लुप्तोपमालंकार है, क्योंकि "अमृतचन्द्रबज्योतिः" पद का समास करने पर यत् का लोप होकर "अमृतचन्द्रज्योतिः" होता है।
इस प्रकार उक्त उदाहरणों से उपमालंकार के प्रयोग की कविचातरी का स्पष्ट बोध हो जाता है । मालोचकों का अभिमत है कि उपमालंकार की अपेक्षा उत्प्रेक्षालंकार के प्रयोग में कवि की काव्यप्रतिभा विशेषरूप से विकसित होती है। अमृतचन्द्र उत्प्रेक्षा के प्रयोग में भी अपने कौशल का प्रयोग करते हैं । उनके द्वारा प्रयुक्त उत्प्रेक्षाअलंकार उनकी काव्य प्रतिभा का ज्वलंत प्रमाण है। गद्यरचना में उत्प्रेक्षालंकार का मनोहारि रूप देखिये -
एक स्थल पर वे लिखते हैं कि एक ज्ञायक भाव (आत्मा) का समस्त शेयों को जानने का स्वभाव होने से क्रमशः प्रवर्तमान, अनंत भूत वर्तमान
१. पु. सि. - पद्य नं. १ । २. वही - पद्य १८० । ३. समरसार, आत्मख्याति टीका, कलश क्र. २७६ का भावार्थ । ४, महाकवि हरिचन्द्र - एक अनुशीलन -- पृ. ४९. अध्याय २.