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| प्राचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्त्र
ग्रा. अमृत चन्द्र ने अपनी अनुपम कृति "लधुतत्त्वस्फोट" में तो रूपक का प्रयोग बहुत बार किया है। उनके एक ही पध में अनेक रूपक देखने में याते हैं - यथा प्रच्छादयन्ति यदनेकविकल्पशङ कु खातान्तरङ्ग जगतीज नितैरजोभिः । एतावतैव पशवो न विभो भवन्तमालोकयन्ति निकटं प्रकटं निघानम ।।
अर्थात् हे स्वामिन्, अज्ञानीजीवरूप पशु, अनेक विकल्प रूपी कीलों से खोदी गई मनरूप भूमि द्वारा समुत्पन्न कर्मरूपधूलि से निजस्वरूप को आच्छादित करते हैं, इसलिए वे निकट प्रकाशमान निधान (कोश) रूप श्रापको नहीं देख पाते हैं । यहाँ रूपक का एक और सुन्दर रूप दर्शनीय है यथा
ज्ञानाग्नौ पुटपाक एष घटतामत्यन्तमन्तर्बहिः, प्रारम्घोद्धत संयमस्य सततं विष्वक् प्रदीप्तम्य मे ।। बेनाऽशेष य.षाय किट्ट गलनस्पष्टीभवद्वभवाः, सभ्यग् भान्त्यनुभूतिवर्म पतिताः सर्वाः स्वभावश्रियः ।।
अर्थात् निरन्तर सर्वतः देदीप्यमान अंतरंग बहिरंग में प्रकट हुए उत्कृष्ट संयम वा गुटपाक जान रूप अग्नि में सम्पन्न हो, जिससे समस्त कथायरूपी कीट के नाश हो जाने से स्पष्ट वैभवशाली समस्त स्वभावरूपी लक्ष्मियाँ, अनुभूतिरूपी मार्ग में पड़कर अच्छी तरह सुशोभित हों। कारणामाला अलंकार की झांकी भी देखिये:
___ "द्रव्यकर्ममोक्षहेतु परमसंवररूपेण भावमोक्षस्वरूपाख्यानमेतत् । आस्रवतहि जीवस्य मोहरागद्ध षरूपो भावः । तदभावो भवति ज्ञानिनः । तदभावे भवत्यासवभावाभावः । मानवभावाभावे भवति कर्माभावः। कर्माभावेन भवति सार्वज्ञ सर्वदर्शित्वमव्याबाधमिन्द्रियव्यापारातीतननन्तसुखस्वञ्चेति । स एष जीवन्मुक्तिनामा भावमोक्षः ।।
गद्य रचनाओं में अनेक स्थल' उक्त कारणमाला अलंकार के रूप में उदाहरणीय है किंतु विस्तारभय से यहां प्रस्तुत नहीं किये हैं। यहां उक्त अलंकार का एक उदाहरण पद्यरचना से प्रस्तुत है । यथा :१. लघुतत्त्व:फोट", अध्याय - ६ पद्म क्र. ३. २. वहीं अध्याय २५, पद्य क्र. २५. ३. पंचास्तिकाय गा. १५०-१५१ वी टीका । ४. खिये, पंचास्तिकाय गा. १२८, १६९ की टीकाए ।