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[ आचार्य अमृतचन्द्र व्यक्तित्व और कर्तृत्व नेन्दुमारन ने संवन्दर के सहयोग से पाण्ड्यराज्य के जैनियों पर अमानुषिक अत्याचार किये। जिसके दृश्य मदुरा के प्रसिद्ध मीनाक्षी मन्दिर की दीवार के प्रस्तरांकनों में आज भी विद्यमान हैं । यद्यपि कडंग से लेकर नेन्दुमारन (ई० सातवीं सदी) के समय तक पुनरुत्थापित पाण्डयराज्य की शक्ति और प्रभाव बता पा रहा था । परन्तु इन धार्मिक तथा राजनैतिक अत्याचारों के कारण लगभग एक शताब्दी के लिए जनधर्म की उन्नति पिछड़ गई।
उपयुक्त आतंककारी राजनैतिक वातावरण आचार्य अमृतचन्द्र के समय (ई० ६६२-१०१५) तक चरमोत्कर्ष पर था । फिर भी वे अपने उपदेशों तथा कृतियों में अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांचों व्रतों को यथाशक्ति पालन करने का उपदेश देते रहे । उन्होंने अपने अथ "पुरुषार्थ सिद्धय पाय" में उक्त पांचों सिद्धान्तों का सविस्तार स्वरूप प्रस्तुत किया है। हजारों जीवों के हत्यारे की भी हत्या करने को हिंसा सिद्ध कर हत्यारे को भी मारने का निषेध किया। वे लिखते हैं कि इस एक ही जीव का घात करने से बहुत जीवों की रक्षा होती है "ऐसा मानकर हिंसक जीवों को भी हिसा नहीं करना चाहिये । जैनाचार्यों के उपदेशों में उदात्त तथा प्राणीमात्र के कल्याण की श्रेष्ठ भावना निहित रही है, इसीलिए ऐसे विषम, संकटापन्न वातावरण में भी वे सात्विक (अहिंसक या भद्र) जीवों के साथ मित्रता करने, गुणवानों से प्रेम करने, दुखी प्राणियों पर दया करने तथा विरोधी (आतंकवादी) जनों के प्रति भी माध्यस्थ भाव रखने की भावना भाते थे तथा उसी का प्रचार प्रसार करते थे। इस संदर्भ में डा. ज्योतिप्रसाद जैन लिखते हैं कि शंव-वैष्णव प्रादि द्वारा काल विशेषों और प्रदेश विशेषों में जनों पर भीषण अत्याचार किये जाने पर भी और स्वयं जनों के इस युग में इतना अधिक शक्ति
१. भारतीय इतिहाम, एक दृष्टि, पृ० २४७ २. रक्षा भवति बहूनामेकल्प वास्य जीवहरणेन । ___ इति मत्वा कन्न न्यं न हिंसनं हितमत्त्वानाम् ॥३॥ पुरुषार्थ सिद्ध युपाय ।। ३. सत्वेषु मंत्रों, गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरस्वं ।
माध्यस्थभावं विपरीतवत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देवः ।।।। कृत सामायिक पाठ, "श्री जिनस्तोत्र व पूजनसंग्रह, संकलयिताहीरालाल छगनलाल काले, सोलापुर, वी, नि. सं० २४००