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पूर्व साहित्यिक परिस्थितियाँ ]
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सम्पन्न होते हुए भी उनके द्वारा अर्जनों पर धार्मिक प्रत्याचार किये जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। साथ ही जैनधर्म अपने अनुयायियों के लौकिक कर्तव्यों, वीरतापूर्वक युद्धसंचालन, स्वदेशप्रेम, स्वराज्य रक्षा एवं विस्तार, शासन प्रबंध आदि में बाधक तो कभी हुआ ही नहीं, साधक ही हुआ। जैन विद्वानों ने भारती का भण्डार भरा और जैनकलाकारों ने अद्वितीय कृतियों से देश को अलंकृत किया। अपने इस अभ्युदय काल में जैन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति का सर्वतोमुखी विकास किया । श्राचार्य अमृतचन्द्र भी ऐसे ही अग्रणी आचार्यों में अग्रगण्य हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृत वाङ्मय की विभिन्न धाराओं को अपनी मौलिक कृतियों तथा टीकाओं द्वारा सम्पुष्ट, सम्बद्धित एवं समृद्ध किया है। साथ ही उन्होंने पूर्वकालीन तथा तत्कालीन धार्मिक, साहित्यिक और राजनीतिक विकट-विषमवातावरण में भी जैनदर्शन, जनन्याष, जनअध्यात्म और जैनाचार विषयक विभिन्न धाराओं का भली भांति संरक्षण तथा सम्बर्द्धन किया है। एक ओर जहां उन्होंने विपुल वाङमय की सृष्टि तथा स्वपरकल्याणकारी आत्मसाधना की, वहीं दूसरी ओर पतनोन्मुख, उत्पोड़ित तथा दिशाहीन समाज को मार्गदर्शन, संरक्षण एवं दिशा प्रदान की। जहां तथोक्त दूषित वातावरण में अपना ही जीवन सुरक्षित व्यतीत करना भी कठिन होता है, वहां प्रदूषित वातावरण को परिष्कृत करना तथा ज्ञानप्रकाश फैलाकर समाज का हित करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है, परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र के अपने हिमालय सदृश अडिंग व्यक्तित्व तथा गंगासदृश पवित्र शांतिदायक कर्तृत्व द्वारा कठिन एवं दुष्कर कार्य भी सुगम एवं सुकर हो गया। उनके तथोक्त व्यक्तित्व का परिचय आगामी प्रध्यायों में किया जा रहा है।
१. भारतीय इतिहास एक दृष्टि