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1 आचार्य अमृतचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व यह भी घोषित किया है कि जिनवचनों (परमागम) में रमण करने वालों का मोह रूप विकार का वमन हो जाता है, वे अपने सुखात्मा (समयसार) का दर्शन या आत्मानुभुति प्राप्त करते हैं ।' उनकी स्वसमय परसमय पारंगतता तो उनकी प्रौढ़तम, ताकिक तथा नैयायिक भाष्य शैली में पद पद पर देखने को मिलती है। समयसार कलश का मंगलाचरण रूप प्रथम पद्य ही इसका पुष्ट प्रमाण हैं जिसमें शुद्धात्मा को नमस्कार करते हुए उनके विशेषणों द्वारा कई परसमयों (परमतों) का खण्डन तथा स्वमत (स्वसमय का मण्डन किया गया है। ज्ञानी की मेरुवत् निश्चलता का उल्लेख भो अमृतचन्द्र ने समयसार कलश टीका में किया है। सात प्रकार के भयों से ज्ञानी किस प्रकार मुक्त होता है इसका सहेतुक विवेचन भो उनकी टीका में उपलब्ध है।४ वे आत्मपुरुषार्थ सूचक स्वानुभव प्रकाशक प्रकरणों में शार्दूलविक्रीडित छंद द्वारा अपनी शूरवीरता का परिचय देते प्रतीत होते हैं । वे सगर्व उद्घोष करते हैं कि मैंने सम्यग्यर्शन-ज्ञान-चरित्ररूप निजाश्रम को प्राप्त किया है। मैं साम्यरूप श्रमणपने को प्राप्त हूँ। मैं मोक्षमार्ग का प्रणेता हूँ। मैं मोक्षाधिकारी हूं, मैंने मोहसेना को जीतने का उपाय जान लिया है। मैं प्रमाद चोरों को नाश करने हेतु कटिबद्ध हो चुका है। मैं अपने अनुभवरूप चिंतामणि रत्न की रक्षा में सदा तत्पर रहता हूँ।' इत्यादि घोषणाएं अमृतचन्द्र के प्रखर-प्रभावशाली व्यक्तित्व को परिचायक है। वे जिनसूत्रों ॐ मर्मज्ञ थे, कुन्दकुन्द के परमागम के विशेषज्ञ और आचार-विचार में सदा साबधान रहते थे। वे जिनेन्द्र स्तुति के माध्यम से जिनवाणी के रहस्योद्घाटक थे । वे स्वयं एक स्थल पर लिखते हैं कि जो कोई भध्यजीव अमृतचन्द्रसूरि के ज्ञान द्वारा गृहीत परिपूर्ण अर्थसंयुक्त ऋषभादि तीर्थंकरों
१. उभयनविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाके जिनवचसि रमते ये स्वयं वांतमोहा. । सपदि समयसार तं परं ज्योतिरूमचरन वमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षत एव ।।४।।
समयसारकलश २. नमः रामयसाराय स्वानुभूत्या चकासते ।
चिस्वभावाम भावाय सर्वभावांतरच्छिदे ॥१|| समयसारकलश ३. समयमार कलश, १५४ ४. वहीं, कमांक १५५ से १६० तक । ५. वही, क्रमांक १५३ मे १६१ सक । ६. प्रवचनमार, तत्वप्रदीपिका, गाथा ५ की टीका । ७. बही, गापा २००