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जीवन परिचय ।
[ ७७ को नामावलि हा स्तुति का चिन्तन करते हैं बे सकल विश्व को पी जाते हैं, अर्थात् सर्वज्ञ हो जाते हैं तथा उन्हें कर्म नोकर्म प्रादि कदापि ग्रहण नहीं कर सकते ।'
- इस प्रकार उपर्युक्त प्राचार्यत्व की कसौटी पर अमृतचन्द्र ना व्यक्तित्व शुद्धस्वर्ण की भांति खरा, निर्दोष और प्रभावशाली प्रकट होता है। वे आचार्य परम्परा में ध्र वतारे की भांति मोक्षमार्ग की दिशा के दर्शाने में समर्थ हए हैं। उनकी कृतियां मोक्षमार्ग की प्रकाशस्तंभ हैं। इसका उल्लेख तत्त्वार्थसारकृति में स्वयं अमृतचन्द्र ने किया है। वे तत्त्वार्थसार नामक अपनी कृति को मुमुक्षयों की हितकारी तथा स्रष्ट स्वरूप निरूपक मोक्षमार्ग का एकीकहा , उसकी रचना प्रारंभ करते हैं।
वे तत्कालीन प्रदुषित वातावरण के परिष्कर्ता, जनाचार्य परम्परा में आगत शिथिलताओं के उन्मूलक, मुनिमार्ग (श्रमण परम्परा) के संरक्षक, जैन तत्त्वज्ञान के प्रसारक तथा जैन अध्यात्म के रत्नाकर थे । उन्होंने आचार्य परम्परा के उन्नयन के साथ ही साथ श्रुतपरम्परा का सम्बर्धन तथा सम्पोषण किया। श्रुत परम्परा की रक्षा करना आचार्यों का एक महान कर्तव्य माना गया है। अमृतचन्द्र उस कर्तव्य के पालन में भी सफल रहें हैं | श्रतपरम्परा की सुरक्षा तथा स्वपरकल्याण कर्ता के रूप में ही वे आचार्यों के बीच सुशोभित होते हैं। इस सन्दर्भ में वे स्वयं लिखते हैं कि "समय का प्रकाशक जो प्राभूत नामक अर्हत् प्रबचन का अवयव है उसका परिभाषण (मैं) अनादिकाल से उत्पन्न हुए अपने और पर के मोह वो नाश करने के लिए करता हूँ। बाङमय के सजन का दायित्व उन्होंने अपने मौलिक वैशिष्टयों के साथ निभाया। साहित्य के सृजन द्वारा जहां उन्होंने कुन्दकुन्द की रचनाओं पर भाष्य रच कर आचार्य परम्पराओं का संवर्धनों, संरक्षण एवं प्रकाशन किया, वहीं मौलिक कृत्तियों द्वारा जनाचार तथा जैन तत्त्वज्ञान को विकसित किया। उनकी समस्त कृतियों में अध्यात्म की प्रमुखता दृष्टिगोचर होती है।
संक्षेप में हम आचार्य अमृतचन्द्र को जैन अध्यात्म के रसिक, जैन तत्त्वज्ञान-सिद्धान्त के मर्मज्ञ, जैनाचार के साक्षात् प्रतीक के रूप में पाते हैं। वे जैनाचार्य परम्परा के समुज्वज्ल तथा प्रकाशमान आचार्य रत्न हैं।
१. लघुतत्वस्फोट--पद्यमांक २५
ये भावयन्स्य विकनाथषती जिनानां, नामावलीममृतचन्द्र चिदेक.पीतम् ।
विश्वं पिबन्ति सकल किल लीलव, पीयन्त एव न कदाचन ते परेरण ॥२५॥ २. समयप्रकाशकस्म प्राभृताह्वयस्मात्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादि मोहप्रहारगाम भाववाचा हव्यवाचा व परिभाषामुपक्रम्यते ।।
समयसार गाथा १ (प्रात्मख्याति टीका)