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दार्शनिक विचार }
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प्रमाण द्वारा वस्तु को वस्तु प्रमाण से परिपूर्णतः ग्रहण में आती है । जानकर पश्चात् उसकी किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना अथवा सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के हृदय के नय कहलाता है ।" अभिप्रायको नय कहते हैं। यहां अभिप्राय से तात्पर्य है प्रमाण से गृहीत वस्तु के एक देश में वस्तु का निश्चय करना । एकदेश अर्थात् एक धर्म का कथन करना नय का काम है । यद्यपि वस्तु नाना धर्मा से संयुक्त होती है तथापि नय उसके एक ही धर्म का कथन करता है क्योंकि उस समय उस ही धर्म की विवक्षा होती है, शेष धर्मों की विवक्षा नहीं होती है । ४ इस तरह पूर्वाचार्यो के दार्शनिक विचारों के प्रकाश में आचार्य अमृतचन्द्र के निश्चय तथा व्यवहार नय संबंधी विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं ।
वक्ता उभय नयज्ञ होना चाहिए:
प्राचार्य अमृतचन्द्र नयवेत्ता, नय मर्मज्ञ तथा नयस्वरूप के स्पष्ट निरूपक थे । सर्वत्र उनके साहित्य में नय सापेक्ष, स्पष्ट निरूपण तथा निश्चय-व्यवहार उभय नयों का स्पष्टीकरण दिखाई देता है । निश्चय को मुख्य तथा व्यवहार को उपचार कथन दिखाकर शिष्यों के अज्ञान को दूर किया जा सकता है । ग्रतः जिन मार्ग के वक्ता को निरचय तथा व्यवहार दोनों नयों का ज्ञाता होना चाहिए । नयों के रहस्य के जानकार वक्ता ही जगत् में धर्मतीर्थ की प्रभावना करते हैं । *
नय प्रयोग में सावधानी की आवश्यकता है
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नय अनेक हैं, उनके अपने अपने अलग-अलग अभिप्राय हैं । प्रत्येक नय के कथन के अभिप्राय को समझे बिना वक्ता या श्रोता किसी का भी कल्याण होना संभव नहीं है, अपितु नयों का यथार्थ श्रभिप्राय ग्रहण न करने वाले को लाभ न होकर उल्टे नुकसान में ही पड़ना पड़ता है ।
१. सर्वार्थसिद्धि १/३ . २० (जानपीठ )
२.
तिलोचवण्यात १
धवला पु. ९/४५ १६२.
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. २६४ (मूल)
मुख्योपचार विवरण निरस्तर विनेयदुर्बोधाः ।
व्वहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, पच ४.
3.
४.
५.